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उस रोज / राघवेन्द्र शुक्ल
Kavita Kosh से
बस कलम उठाई, लिक्खा रंग।
उस रोज न रक्खा वश में मन
सब छंद कहीं पर छोड़, कवी
हर शर्त के नाके तोड़, कवी
सब भूल गया वर्जन-अर्जन।
उस रोज नहीं ढूंढे अक्षर
उस रोज नहीं खोजा शीर्षक
उस रोज लिखा जो कुछ, औचक
वह अर्थ-भाव जो चिर-दुर्धर।
ध्वस्त किया सब अनुशासन
प्रस्तर पर लिखे नियम-संयम
उन्मुक्त व्योम के मध्य स्वयं
का घोषित किया विश्व-निर्वासन।
इग्नोर किया सब राह-वाह
इक लीक धरी, फिर मेड़ पड़ी
परवाह जगत की, किया स्वाह
बहने ही दिया जीवन बेढंग।