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उसके गाल रक्तिम लाल हो उठे / कुमार मुकुल

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श्रुति से लेकर कुमार कौस्तभ द्वारा अनूदित अलेक्सांदर पूश्किन की प्रेम कविताएँ पढ़ते हुए


उसके बाल थे

बहुत काले

मुलायम

जिन्हें उंगलियों में लपेटता

पीछे बैठा रहता मैं


कभी

उसकी हथेली

होती

मेरी हथेली में

घुलती

किस कदर

कि अचानक वह

खींच लेती उसे


एक दोपहर

उसने लगा दी मुझे बिन्दी

और ठिठियाती रही देर तक

तब

उसे

उसके पोरो से पकड़ता

आहिस्ता खींचता

बाँहों में भर लिया मैंने

और भरता चला गया

वह मुस्कुराती रही धीमे


कभी-कभी भागती वह

और झूल जाती कंधों से

दोहरी होती हुई

तब उसे बाँहों से पकड़

सीधा करता मैं

और कंधों से लगाए

बातें करता रहता


वे रातें

उसके सपनों से भरी होतीं


अल्लसुबह

गुड मार्निंग कहती वह

और मेरी सुबह होती


उठकर

चूल्हे के पास जाता मैं

जहाँ खड़ी वह भगोने में खदकती

चाय को घूर रही होती

जैसे कोई रहस्य

छिपा हो वहाँ


तब धीमे से मैं भी

उसके कंधों पर पीछे से

अपना चेहरा टिकाता

खदकती चाय को

देखने लगता


धीरे-धीरे मेरी बाँहे

अपना वृत बनातीं

जिसमें उर्घ्‍व लता सी दोलती

वह खिलखिलाती रहती

तब मेरे गाल

उसके गालों को

छू रहे होते


फागुन के दिन थे वे

होली नजदीक थी

आश्चर्य

ना उसने मुझ पर रंग डाला था अब तक

न मैंने उसे -

तो सामने की लत्तर से

गहरे गुलाबी पत्तों का एक झोंप

तोड़ा मैंने

और उसके कपोलों पर मसल डाला

मैंने देखा

गुलाबी रंग

मेरी हथेली पर आ लगा

और उसके गाल

रक्तिम

लाल हो उठे।