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उसे ही बनना है समर्थ / उपेन्द्र कुमार
Kavita Kosh से
उपस्थिति की निरंतरता से
अभ्यस्त
हो जाते हैं
कि पहचानते हैं
हवा को
जब वह हो जाती है तुम
पानी को
जब वह सूख चुका होता है
टूटती है
आश्वस्ति हमारी
केवल
निरंतरता की
किसी अनुपस्थिति से
कविता भी
क्षण भर को
कौंधती है
जब वह लगी होती है
लगातार
बदलने की कोशिश में
और गुजर रही होती है
चीजों के आर-पार
जब कविता
दीखती नहीं है
तब किसी सूप में
फटक रही होती है
शब्दों के कचरे को
उड़ कर अर्थहीन
सार्थक बच रहते हैं
जटिल प्रक्रिया में
ताकि
बन सकें
समर्थ
समर्थ शब्द ही
उछाल सकते हैं
कुछ प्रश्न
मुस्कुराते हुए
संकेतों से
आखिर
शब्दों के साथ-साथ
प्रश्नों को भी बनना है
समर्थ
अर्थ के लिए