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ऊँचाइयाँ / अरविन्द यादव
Kavita Kosh से
ऊँचाइयाँ नहीं मिलती हैं अनायास
ऊँचाइयाँ नहीं होतीं हैं ख्वाबों की अप्सराएँ
ऊँचाइयाँ नहीं होतीं हैं महबूबा के गाल का चुम्बन
पाने के लिए इन्हें जगानी पड़ती है
दूब की मानिंद
उठ खड़े होने की अदम्य जिजीविषा
इतना ही नहीं सोने की तरह
कसना पड़ता है स्वयं को
समय की कसौटी पर
क्यों कि ऊँचाइयाँ होतीं हैं
आकाश के तारे
और मुठ्ठी में रेत।