ऊपर तो मात्र धुआँ जाता / विमल राजस्थानी
प्राणों की कोयल तो उड़ कर जा बैठी अनजाने तरु पर
सिसकी भर-भर, छल-छल आँखों हम नंगी डाल निहार रहे
जब तक साँसें थीं, जीवन था
जब तक कोयल थी, मधुवन था
साँसें न रहीं, जीवन न रहा
कोयल न रही, मधुवन न रहा
कूहू के बैन सुना कर ही तो मधुवन देता था परिचय
स्वर की रूठी रानी को अब तरु रो-रो चीख-पुकार रहे
आने में नौ-दस मास लगे
जाना तो हुआ निमिष भर में
खुशियां लेकर आये, लौटे-
कुहराम मचा कर घर-घर में
आलिंगन से, भुजपाशों से जाने वाला कब रुका यहाँ
डबडब आँखों, आश्वासन से हम सूनी माँग सँवार रहे
चन्दन-केशर से पुता बदन
जल-जल कर राख हुआ जाता
सब कुछ तो यहीं धरा रहता
ऊपर तो मात्र धुआँ जाता
मिट्टी में मिट्टी मिल जाती, जल जल में घुल-मिल जाता है
जाने वाले के पीछे तो बस दारुण हाहाकार रहे
सोने-चाँदी की रौनक में
यों ही दुनिया भरमायी है
जितनी ज्यादा आँखें गीली
बस, उतनी ही ऊँचाई है
कुछ ऐसा कर तू ही न तरे, संसार तरे, तेरे पीछे-
यश का जय-घोष रहे, जन-जन के कंठों में जयकार रहे
-11.12.1974