ऊब / नीता पोरवाल
ऊब थी, वो तो आनी ही थी 
तो तोड़ दिए हमने मिट्टी के खिलौने 
कब तक खेलते रहते उनसे 
आखिर वक्त के साथ चलना था 
पुराने को छोड़ कुछ नया भी तो करना था 
और अब जो गढा गया सचमुच  
नया था अज़ब था...
 
नन्हे भोलू के चेहरे से 
मुस्कान हटाकर 
पेड की छाँव तले रात गुजारते
इक पगले को दे दी गयी,
खाकी वर्दी पहने सिपाही  
बंदूक लिए तो नज़र आता है किन्तु 
ट्रिगर उसके हाथों में नहीं   
सफ़ेद पोशीदा पर्दों के पीछे बैठे 
सेठ करोरीमल के हाथों में दे दिया गया 
   
और धीरे धीरे ये खेल 
खिलौनों के साथ नहीं 
इंसानों के साथ खेला जाने लगा 
जो मिट्टी के खिलौनों की तरह 
तुरत टूटते भी नहीं थे  
पर देखा जाए तो अज़ब से 
इस खेल से खेलते हुए    
अब हमें ऊब भी जाना चाहिए?
और ऊब आने का यह मुकम्मल वक्त होगा
	
	