ऋण-बोध : ऋण-शोध / ज्ञानेन्द्रपति
तुम्हारे एक पुरापूर्वज ने कहा :
धरती ! ऋणी हूँ तुम्हारा
और हूँ क्षमाप्रार्थी
ऋणी कि धारण करती हो मुझको, सर्वसहे !
क्षमाप्रार्थी तुम्हें खोदने-खनने-रौंदने के लिए
कि जिसके बिना चल नहीं सकता जीवन
जो तुम्हारा ही तो दिया है
तुम्हारे एक पुरापूर्वज ने कहा :
आकाश! ऋणी हूँ तुम्हारा
कि वायु को संचरित होने देते हो
कि प्राणवायु के साथ समा जाते हो अन्दर
कि माथा उठाने देते हो
कि घेरे हुए हो धरती को हर तरफ़ से निर्भार भुजपाश में
कि धारण किए हुए हो उसे अपने वर्धिष्णु वक्ष में सहास
तुम्हारे एक पुरापूर्वज ने कहा :
राजन् ! मुकुट उतारकर
पाँव तले बिछी धरती पर टेको माथा
क्योंकि प्रकृति का ऋणबोध ही ऋणशोध है
और सुनो, पहले सूर्य और मेरे बीच से
परे हटो
और अब जब
अन्तरराष्ट्रीय महाजनों के ऋण-जाल में फँसाए जा रहे हैं
देश-दर-देश
सर्वभक्षी पूँजी के पक्ष में नीति-रीति बदलने को किए जा रहे मजबूर
मनुष्य की मुश्कें कसी जा चुकी हैं हर तरफ़
तमाम तरहों के ऋणों की रस्सियों से
ऋणों का एक सिलसिला है जिसे चुकाने में चुक जाते हो तुम
फिर भी तुम्हारे अजन्मे बच्चे तक के माथे पर
लदा होता है ऋण-बोझ
क्योंकि ऋण को धन में बदलने की कला तो उन्हीं हाथों में है
जिनकी मुट्ठी में बन्द है ऋण-जाल का संचालक सिरा
तुम तो एक फँसे हुए लाचार शिकार हो, बस
सुविधाओं और दुविधाओं के मारे हुए
घर के सज्जित कोने में लज्जित-से बैठे हुए
सुखी रहो, दुखी रहो
ऐसे भी तुमसे नहीं, तुम्हारी किशोर सन्तान से मुखातिब है
दूर खड़ा वह समकालीन बन्धु
जो गम्भीरमुख कह रहा है :
गाड़ी-बाड़ी के लिए कर्ज़ लेने से भी पहले
पढ़ाई के लिए कर्ज़ लेने के चक्कर में मत पड़ो
वह चक्की है जो पीस देगी तुम्हारी आत्मिक स्वतन्त्रता को
झुक जाएगी तुम्हारी बौद्धिक रीढ़ बनने-तनने से भी पहले
आलोचना की सम्भावना मारी जाएगी तुम्हारे भीतर
व्यवस्था तुम्हें क्रीतदास में बदल देगी
खुली फैली मुक्तमना सर्वसुलभ प्रकृति के ऋण से
तब कैसे उऋण होओगे तुम
ज़रा सोचो !