भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
ऋतु-वसन्त / राजकमल चौधरी
Kavita Kosh से
भरि दुपहरिया अपन एहि अन्हार कोठलीसँ बाहर रहबाक,
नहि होइत अछि मोन
प्रत्येक रोम-कूपमे, बरकि रहल अछि नोन
आँगनमे तुलसी चौरा लग, जनमल छल एकटा कनक-चम्पा
सेहो एहि रौदीमे सुखा गेल,
जे किछु बचि गेल छल जीवनमे कविता
तकरा हरिअर घास बुझि कय, ऋतु बसन्तक ई शून्य हृदय-महीस
चरि गेल...चिबा गेल
कनक-चम्पा एहि रौदीमे सुखा गेल
(आखर, राजकमलक स्मृति अंक: मई-अगस्त, १९६८)