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ऋतु आनन्द विभोर हो गयी / विमल राजस्थानी
Kavita Kosh से
इन आँखों में तुम्हें सँजोये
रात कट गयी, भोर हो गयी
प्राणों पर पसरी-पसरी यह-
नन्हीं दूब किशोर हो गयी
लाल पद-तली की मदिरीली-
छुवन गुदगुदी सौंप गयी है
तुम्हें निरख कर लगती मुझको-
अपनी आकृति नयी-नयी है
फेंकी तुमन दृष्टि अनावृत्त, सारी सृष्टि अँजोर हो गयी
सपने झूम उठे, निंदिया को-
पंख लगे तो थारे थिरके
सुधि की बही बयार, नयन नभ-
में छवि-घन घुमड़े घिर-घिर के
झड़ी लगी, कोंपलें नहायीं, ऋतु आनंद-विभोर हो गयी
नहीं नेह का झरना उछला
शैल-शिला के प्राण पसीजे
जल-बुँदियो की बजी न वंशी
कब किसके मन-मोहन रीझे
बाँह पसारे हँसा न सागर, सागर स्वंय हिलोर हो गयी