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ऋतु की मरजाद / राजेन्द्र गौतम
Kavita Kosh से
शीशम का
नीमों से
नीमों का
पाकड़ से
बना हुआ अब भी सम्वाद है
शहतूतों की
टहनी
धीरे से
हाथों में
ले-लेकर सहलाना
शिशु-सा गोदी में भर
बर्फ़ीली आँधी के
दंशों को भुलवाना
यह क्या कम है
अब तक --
बासन्ती हवा ! तुम्हें
वचन रहा याद है ।
डरा-डरा
सहमा-सा
मुँह लटकाये रहता
ख़ामोशी का जंगल
खाल तनों की उधेड़
निर्दय पच्छिमी हवा
हँसती थी कल खल-खल
अँखुओं की
ख़ुशबू से
पेड़-पेड़ ने
रख ली
ऋतु की मरजाद है ।