ऋतुराज / राधेश्याम प्रगल्भ
ललित ललामी है रवि की,
सुखद सलामी है छवि की,
दुरित गुलामी है पवि की ।
गेरत लाज चिरी पै गाज,
गहराबत,
आबत,
ऋतुराज ।
सौंधी-सौंधी बहे समीर,
चहकत चिरियाँ पिक अस्र् कीर,
कुँज-कुँज भौरन की भीर ।
छलकत छवि फूलन ते आज,
मुसकाबत,
आबत,
ऋतुराज ।
तरु बन्दहि सोभा सम्पन्न,
नाहिं बिपिन हैं आज विपन्न,
प्रकृति नटी है परम प्रसन्न ।
मनहु मनोज सनेह सुराज,
गहराबत,
आबत,
ऋतुराज ।
नव किसलय नव कलिका फूल,
नवल लता नव धरा दुकूल,
कूजित कुँज कलिन्दी कूल ।
छिति छोरन छायो सुखसाज,
हरसाबत,
आबत,
ऋतुराज ।
आमन-आमन लागे बौर,
अँकुअन माहीं लागे मौर,
कोकिल कू कै ठौरहि ठौर ।
साजत है सँगीत समाज,
उमगाबत,
आबत,
ऋतुराज ।
निर्मल नीर, अकास अमल,
बन पलास, सर खिले कमल,
जड़ जँगम जग जीव नवल ।
रूप मनोहर घारे आज,
इतराबत
आबत,
ऋतुराज ।
अँग-अँग आभा झलकन्त,
दरसत रूप अनूप बसन्त,
जानै कित कूँ गयौ हिमन्त ।
सुख सरसावत सन्त समाज,
उमगाबत,
आबत,
ऋतुराज ।
मही रही द्युति हरस समेत,
भए बसन्ती सरसों खेत,
नवल जमन जल जमुना रेत ।
सीस धरे केसरिया ताज,
इठलाबत,
आबत,
ऋतुराज ।