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ऋषि सँग हरषि चले दोउ भाई / तुलसीदास
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राग सारङ्ग
ऋषि सँग हरषि चले दोउ भाई |
पितु-पद बन्दि सीस लियो आयसु, सुनि सिष आसिष पाई ||
नील पीत पाथोज बरन बपु, बय किसोर बनि आई |
सर धनु-पानि, पीत पट कटितट, कसे निखङ्ग बनाई ||
कलित कण्ठ मनि-माल, कलेवर चन्दन खौरि सुहाई |
सुन्दर बदन, सरोरुह-लोचन, मुखछबि बरनि न जाई ||
पल्लव, पङ्ख, सुमन सिर सोहत क्यों कहौं बेष-लुनाई ?
मनु मूरति धरि उभय भाग भै त्रिभुवन सुन्दरताई ||
पैठत सरनि, सिलनि चढ़ि चितवत, खग-मृग-बन रुचराई |
सादर सभय सप्रेम पुलकि मुनि पुनि-पुनि लेत बुलाई ||
एक तीर तकि हती ताडका, बिद्या बिप्र पढ़ाई |
राख्यो जग्य जीति रजनीचर, भै जग-बिदित बड़ाई ||
चरन-कमल-रज-परस अहल्या, निज पति-लोक पठाई |
तुलसिदास प्रभुके बूझे मुनि सुरसरि कथा सुनाई ||