एक अंधे समय के सहयात्रियों / वंदना गुप्ता
एक अंधे समय के सहयात्रियों
कुंठाओं की कुदालों से
नहीं छीले जाते पर्वतों के सीने
गिरेबाँ में झाँकने भर का
तो पानी रखो आँखों में
आक्षेपों आरोपों प्रत्यारोपों से ही
नहीं बदला करतीं तहरीरें
हारी हुयी जंग के आखिरी सिपाही
की तरह मत झुकाओ गर्दनें
अभी तानने को बचा है सारा आस्माँ
बशर्ते हो कूवत तुममें
लगाने को किनारों पर हौसलों की बल्ली
बस भोर की पहली किरण की तरह
फ़िज़ाओं में संगीत धुन बिखरने को हैं
जो एक बार समय के माथे पर
जगमगा सको तुम अपने विश्वास का सूरज
एक महान समय के सहयात्री बन
फिर
विडंबनाओं की पाँखों पर हौसलों की क़न्दीलें
एक दिन जरूर रौशन करेंगी सारा जहान
तो क्या हुआ जो
इश्क के चम्मच शहद से भरे नहीं हुआ करते
देश हित में जारी अध्यादेश की तरह
प्रभावहीन समय से प्रभावशाली समय तक के सफर के लिए
आहुति में जिगर का नमक डालना ही होगी अंतिम पूर्णाहूति