एक आस / शशि काण्डपाल
क़ुबूल
कि नहीं मैं,
तुम सी आलिम फाजिल,
नहीं डूबती उँगलियाँ मेरी स्याही में,
ना मैं रच पाती हूँ छंद,
ना कह पाती हूँ दो बातें,
जो उतरे गहरे ...
दिल से होती दिमाग तक,
नहीं रची जाती मुझसे वो कल्पनाएँ,
जो बस हवाओं सी हैं,
दिखती नहीं,
रूकती नहीं,
ना ही पकड़ वो आती...
कहीं तो कोई सिरा होता जो खाता मेल तुझसे,
रंगता मुझे तुम्हारे मायाजाल में,
और डुबोता कल्पना के भंवर में...
मुझे चाहिए छुवन,
अगर लिखूं किसी मासूम की मुस्कान..
वो उड़ती सी तितलियाँ,
जो बिखरा दें अनगिनत रंग...
बिन मांगे,
और रंग दें उदासियों के कतरे,
एक लजीली मुस्कान में.....
अगर मैं लिखूं लाल,
तो मुझे चाहिए किसी मांग का दमकता सिन्दूर,
धमनियों में धधकते,
लहू का अहसास,
और वो ऊष्मा,
जो उतरे जेहन तक,
और कहे,
ये वही लाल है,
जो सुबह टिकुली सा सूरज,
साँझ प्रियतमा का श्रृंगार बना,
डूबा तो अम्बरी हो उठा नीर,
और बहा तो अमर हो गया वीर ....
नील लिखूं तो आसमानी चंदोवा तन जाए,
कुछ बादल हों,
कुछ पक्षी उड़ते आयें...
कुछ मासूम पतंगे हों,
कुछ छतें जो आपस में बतियाएँ...
सब्ज सोचूं...
तो बाग़ घिर आये,
राधा नाचे और कृष्ण मुरली बजाएँ,
मोर कूके और हिरन हुलंग जाएँ...
गायें चरतीं हो भरपेट,
और ग्वाले लुकछिप खेल रचाएँ...
सोचती हूँ लिखूँ जो भी वो साकार हो जाये,
मैं सोंचू,
और वो उस पार हो जाये..
सतरंगी सपना हो,
लेकिन तेरा मेरा,,
सबका अपना हो...
मुझे आलिम फाजिल नहीं,
तेरा अपना बनना है,
तेरा सपना बनना है ...