एक उभरा –सा द्वीप / नवीन कुमार
( कुमार मुकुल को )
पूरी रात बची है
सवेरे का अंदेशा है
द्वीप नहीं है वह
उभरा-सा है –
किसी दीवार से टकरा
माथे पर
उगा आए टेटर की तरह
फूटा भी नहीं कभी
कि रिसकर बराबर हो जाए
डॉक्टर कहते हैं - कहीं लाइलाज घाव न बन जाए
छूकर देखते हैं, दर्द से बिलबिला उठता हूं
कभी पिलपिला लगता है
कभी कठोर
सिर नवाकर पार कर जाता हूं
इधर से या उस तरफ से
दोनों सिरों से गुमटी लगातार बंद रहा करती है
एक तरफ सूअरों की आवाजें उनकी धर-पकड़
बैठकर सूप-डगरा बीनते लोग
या चाय बिस्किट खाते
बतकुच्चन करते
दूसरी तरफ सब्जियों के लिए धींगा-मुश्ती
लोगों का रेला बाजार का खेला
रेल-पटरियों की समानांतर कतारों पर
चलते लोग
न कि ट्रेनें
( सोचता हूं क्या मैं लिख पाऊंगा पूरी कविता,
एक अदद कविता,
जब बाईपास पुलों से ही
ऊपर-ऊपर पार करवा दी जा रही है कविता )
और बहुत कुछ छूटता जा रहा है
क्योंकि नया-नया बनता जा रहा है
छुटती चीजों में छूटते लोग हैं
उनके छूटते जा रहे हैं घर-बार हैं
इसीलिए ही शायद छूटते जा रहे
मोहल्ले, रोजगार हैं
नई नई जगहों में
लाचारी का, सट्टा का, दारू भट्टी का
नहीं तो बिल्डिंगों का कारोबार है
चारों तरफ होम्योपैथ की दवा सी तुर्श गंध है
या नहीं तो सड़ रहे
पानी, कीचड़, गोबर की
यहां की कविता में तो इतना गुस्सा है
कि यह अपने पसीने-मूत्र की धार में ही
बहा देना चाहती है सब कुछ
कि कहीं सब कुछ ढह न जाए
भगवा चादर से भगवान हर लेते हैं
उनका आक्रोश
लाल बत्ती की हवा से पसीना सुखवा डालते हैं
नहीं सलटता है तो
रामचेलवा को समानांतर पटरी पर काट
डाल आते हैं
एक भगवान के चेलवा का अंजर-पंजर तोड़कर
मन-माफिक जोड़कर लदरावस्था में
प्लास्टिक के बोरे में कस
इस उभरे द्वीप के पार बहुत दूर फेंक आते हैं
साथ का लड़का आज भी ‘चेलवा’-‘चलेवा’ पुकारता है
वन-वन फिरता है
आकाश एकटक देखता है
पूछते हैं मित्र -
तुम यह क्या हमेशा द्वीप का
रट्टा लगाते रहते हो
वही सब्जियों का बाजार है ना
बारहों मास कीचड़ मार गली-कूचे
एक अंतहीन कस्बा गंवार-से अटे हुए लोग
कुत्ते, घर-घर छलांग मारती बिल्लियां
नहीं तो म्युनिसिपालिटी के वर्कर्स की बपौती - सूअर
अपना हाथ सुंघाया है उनको
उन्हें कुछ क्यों नहीं महसूस होता
हालांकि मेरे बात करने के लहजे पर
आपत्ति जरूर है उन्हें
देखता हूं
पावर हाउस की चिमनी से
उठता हुआ काला धुआं
छाई बाहर आती है एकदम लावा-सी लाल
पानी गर्म हो रहा होगा
वाष्प उठता होगा
काले-उजले बादलों के टुकड़े चिंदियां
उसके ऊपर आकाश
चारों ओर से
लपकती हवा
लिपटती है बरसात
लेनों
मुहल्लों से उलझा-उलझा
उभरा द्वीप
उनके उलझे बालों वाले बॉस
सुलझे बालों वाले हीरो
लगातार हल्ला, कभी भी बरप सकता है हंगामा
भीड़
कि एक घर के ऊपर दूसरा घर चढ़ता-सा
जबकि
चप्पे-चप्पे में फैला है जीवन यहां
इस उभरे द्वीप पर
इस अजीब से माने जानेवाले मोहल्ले में
और तब जबकि
असंभावित मौतों के ही हिस्से हैं यहां के लोग
उन्हें जीवन से ही
इतना मोह क्यों है
कि कल को हम गवाह होंगे
उसी धक्के-से जीवन का
जो पसरा है चप्पे-चप्पे में
जाड़े में पसर जाती है धुंध
और उसमें फंस-फंस जाता है
हरेक घर के मुहाने पर रखे चूल्हों का धुआं
क्या कुछ दर्द भी रहा है ?
धूप इस धुएं में मिली धुंध को तोड़ती
थकती
कि मर्द लोग घरों के बाहर
उन्हें चक्करदार गलकुचिए-सी संकरी होती जाती
गलियों से निकल
दरियाए सड़ते बदबूदार जूठन, कूड़े
पिल्लुओं-से बजबजाती नालियों को पार करते
या उनके बारे में बातें करते
चले गए होते
स्त्रियों की बारी होती
काम निपटा कामों से निपट
द्वीप के मुहल्लों के छोटे खुले स्थानों पर बैठ
गप्पें हाकतीं
स्वेटर बुनतीं
उधर मवेशियों को राय जी नहा रहे होते
मजा लेते रहते
पूछ से छींटे उड़ाती
सारी जगहों में भरी पड़ी हैं वह
दीपावली की रात है
मैं दूसरी तरफ वाली गुमटी पार कर
भुनते हुए सुअरों को सूंघते जाना चाहते हुए भी
नहीं जा सका
मैं जल्दी पहुंचना चाहता था
मेरे दोस्त की टांग टूट गई है
( बेरोजगार ने अंतरजातीय विवाह क्या कर लिया )
डॉक्टर ने बताया -
टांग गिरने से नहीं टूटी
बल्कि पहले टांग की हड्डी टूट गई
जिस कारण वह गिर पड़ा
कैल्शियम की कमी थी
और मैं दोनों सिरों के गुमटी वाले रास्ते को छोड़कर
एक शॉर्टकट बीच से
अंधेरी पुल वाला रास्ता अख्तियार कर लेता हूं
आशंकाग्रस्त
कहीं इस साल भी कोई मारकर नहीं फेंक
दिया गया हो
तेजी से पार कर जाता हूं
अंधेरी को
एक दिया भी नहीं इसकी निर्जनता में
झाड़ी पार शौच को बैठी औरतें
फड़फड़ा कर उठ जाती हैं
मेरे अभ्यस्त कदम गिट्टियों भरी रेलवे लाइन
उबड़-खाबड़ कीचड़नुमा रास्तों-गड्ढों को पार कर
नाला तड़़पते
अंधेरी पुल पार कर जाते हैं जल्दी - सब ठीक है
बिजली गुल है इस उभरे द्वीप की
दिये जल रहे हैं, पटाखे फूट रहे हैं
अभी दूर है दोस्त का घर
रास्ता
जलकुंभिओं के प्रसार
झिंगुरों-टिड्डों की आवाज में
दबा डूबा
कुत्ते एक दूसरे के पीछे पड़े हुए हैं, मौसम है
डर भी लगता रहा है इन आवारा कुत्तों से
कहीं पेट्रोलिंग कार उल्टी-सीधी
पूछताछ ना करे
इस बार लोग पैसा जमा कर
पानी का जमावड़ा दूर करने के लिए
अंडर-ग्राउंड नालियां बनवा रहे हैं
सड़क का हाल तो ऐसा है
कि कैल्शियम भरी देह भी भहरा जाए
नालियां हहरा रही हैं
और
मैं दीपावली की अंधेरी रात में
उभरे द्वीप की बीहड़ता में घुसता जा रहा हूं
मानो हवाएं संपीड़ित होती जा रही हों
प्रतिक्रिया में पड़ा संपीड़न मुझको धकेल रहा-सा है
मैं घूरती आंखों वाले चेहरों की ओर
बिना तके तेजी से लपकता बढ़ चला जा रहा हूं
जबकि सभी को पहचानता रहा हूं
जान पहचान भी एक खतरा है यहां
कौन ठीक
कौन पार्टी इसका
नहीं तो उसका आदमी समझ टीप दे तो
दीयों की रोशनी मेरा हौसला है शायद
लौटता हूं दोस्त का क्या कर सकता था
अभी तो सब ठीक ही था, लौट रहा हूं
उसी रास्ते से लौटता हूं
फिर अंधेरी बुला आ रहा है
सब तो ठीक ही था, कोई हलचल नहीं
कोई औरत भी नहीं
पर इतना शोर
कुत्तों का -
न मालूम क्या है
रात के साथ गहरा रही है ठंड
अरे
यह तो अजय है, अजय पांडे
( इस बार इसके नंबर का हल्ला भी था )
मैंने तो इसको पढ़ाया भी है
एकदम तेजी से निकल जाता हूं, क्षण भर भी ठहरे बिना
रिक्शा… चलोगे
हां
मेरा सिर घूमने लगता है
या दूसरी सारी चीजें घूम रही हैं
मितली सी आने लगती है
मैं ओकने लगता हूं कुत्ते-सा
जैसे घास खा ओकने ही गया था उस द्वीप में
जबकि
मैं जानता हूं इच्छाओं का संसार है
सारी दुनिया पर मंडरा रहा है आदमकद डर
छि: मानुष, छि: मानुष की रट लगाए जा रहा है
(मानो ये उभरा द्वीप द्वीप ना होकर रात भर गोलियों से खेलता अमेरिका की
शह पर कूद रहा तालिबानी इलाका हो)
जो बचपन के किस्सों में लगातार आता रहा
मानुष को चबाता रहा
उम्र के इस पड़ाव में- लगता था (शायद)
सब ठीक है
इच्छाएं ही इच्छाएं थीं
नितांत निजी व्यक्तिगत इच्छाओं का संसार था
पर मैं नहीं जानता था
आदमकद डर के ऊपर भी इच्छाओं का संसार है
जो एक दर्जा नीचे आदमकद डर की
कमर में माउजर खोंस देता है
एक इलाका नाम कर देता है
कहता है -
आदमीकद डर की
एक फौज तैयार करो
तब जाना लोकतंत्र में
वहां संख्या महत्वपूर्ण होती है
(भौतिकशास्त्र पढ़कर क्या किया
गैलेक्सी का गणित लगाता रह गया)
डर की भी जातियां होती हैं
धर्म होता है
पर यह नहीं जानता था कि
अब भालूकद, बाघकद डर होते हैं
जो विलुप्तप्राय-से सेमिनारों तक सीमित हैं
जाते ही सो गया मैं
बुखार हो आया था ढाढ़स बंधाया पापा ने
घटना में चमत्कार की हद तक बदलाव
अपनी सारी तारतम्यताओं के बावजूद डरा सकता है
मानो
इतिहास लंबी छलांग लगा दे
ककहरा रटने वाला लड़का एकाएक विज्ञापनों के
तुक गाने लग जाए
उसी तरह
गेंदे के फूलों से भरी बंधी रंथी पर
13 सितंबर, 1998 को
एक जर्जर औरत की लाश को
देखता हूं
जो कि अधेड़ दिखने वाले गोरे अभियंता की
लाश में बदल गई है
गेंदे फूल के वस्त्रों से लैस
इस औरत का पति उपस्थित जन के लिए
एकदम सहज था
पर अचानक वह गोरा अभियंता उठकर
एकाएक भागता है
कि धूप सूखने की हद तक काला
एक कलूटा लंगी लगाकर पटखनी दे
उसको रंथी पर फेंक उलट डालता है
और ऐसा दो बार होता है
एक बार क्यों नहीं ?
बच्चों की कोमल नींद में घुसे जा रहे
ये सपने किस तरह के सपने हैं
यह कैसी हॉरर मूवी है या कि
टीवी के विज्ञापन हैं
सुरक्षित करने लेने की साजिश में
मृत्यु की अदला-बदली तक कर ले जा रहे हैं
ये लोग
और वो कलूटा जो
मेरे विद्रोहों को ऐसा मोड़ दे डालता है
कि विद्रोह अराजकता में बदल जा रहा है
वह कौन है ?
क्या मैं सभी पात्रों को पहचानता हूं
मैंने देखा है
उस जर्जर औरत का पति चेला है
उस गुरु का जो मां जो मां शेरावाली के शेर के
अयाल के एक बाल से पैदा हुआ है
उसके यहां शंकराचार्य आते हैं
उपस्थित जनों में टीवी में दिखने वाले
धांसू राजनीतिज्ञ हैं, अफसर हैं
पत्रकार हैं
औरत, पति, उपस्थित जन सभी एक सिरे से गायब हैं अब
सिर्फ एक गोरा है
एक काला है
दोनों ही सुरक्षित हैं- एक मर कर भी
एक पटककर भी
तभी मेरी आंखें खुल जाती हैं
देखता हूं
100 वाट का बल्ब जल रहा है
देह तक हिला नहीं पा रहा हूं
सभी सो रहे हैं
मच्छड़दानी के बाहर पैर निकालने में भी
डर लग रहा है
…कैल्शियम की कमी
…वह कलूटा।
उठ कर पानी पीता हूं
सभी सोए हैं - बाहर देखता हूं
आकाश साफ है तारों भरा
पटाखों की एकाध आवाजें
रंग-बिरंगी लड़ियां
बिखरी पड़ी चिंदियां
पक्कों पर घिरनियों के उजले-चितकाबर धब्बे
सांपों के काले-काले दाग
बच्चे सुरक्षित पटाखा छोड़ पाए हैं
कुछ दिनों बाद परीक्षा है
सोचता हूं कुछ पढ़ूं
फिर बिना लाइट बुझाए ही सोया रहता हूं
बुखार नहीं है
पूरी रात बची है
सवेरे का अंदेशा
सपना था या
नींद में ही चल रहा था चिंतन
कैल्शियम की कमी
आदमकद डर
वह कलूटा
उभरा द्वीप
नहीं - मैं नहीं जाना चाहता
एकदम नहीं… एकदम नहीं
जाना चाहता उस उभरे द्वीप पर
मुझे निस्संग नफरत है
मैं घृणा करता हूं
मुझ में एक निस्संग नफरत है
कि मेरी नकसीर फूट जाती है (उभरे द्वीप की)
और उसमें सारे दर्द
एक-एक कर खोने लगते हैं, खो जाते हैं
कि कोई एक दर्द है - विशाल उपन्यास
कि कोई एक अदद दर्द है - कविता
और कहीं दबे छुपे दर्द हैं - अनेकों कहानियां
और यह दर्द जो पूरा का पूरा असबाब है केवल
कुछ नहीं
बस वो द्वीप
छि: छि:
कितने छोटे तुम
कितनी छोटी तुम्हारी जिंदगी
फिर उस लखूखा दर्द का क्या
दर्द… नहीं… मुझे दर्द से ही निस्संग नफरत है
कि नहर है
उसमें कूद पड़ने की आवाजें हैं
यह बेगों की सी आवाज नहीं है
मैं यह शोर बर्दाश्त नहीं कर पाता
छपाक की आवाज
फिर तैरने की भी आवाज नहीं आती
कि रास्ता लंबा है
और केवल कुत्ते हैं
झिंगुरों की आवाजें हैं
नहीं… मुझे अब कुछ भी सुनाई नहीं देता
कि बड़ी-बड़ी बिल्डिंगें हैं
और गाड़ियों के सांय-सांय में शायद कुत्ते चिपा चुके हैं
झिंगुर धकेले जा चुके हैं गांव की ओर
बरसात में बेंगों की टर्र-टर्र
वो ... वो तो
शायद दोष है म्यूनिसपैलिटी का
यह जनता का
कि पानी अब भी जम जाता है
मुझे सर्दी-सी हो आती है फिर नकसीर फूट पड़ती है
इसीलिए इसीलिए...
मैं दूर एकदम तटस्थ पड़े रहना चाहता हूं
जैसे अभी मैं एक कमरे में सुरक्षित सोया पड़ा हूं
इन सबसे बेखबर
कि किशोरों की मौत बढ़ गई हैं
उसी दिन तो मेरे छोटे भाई का दोस्त
मरा, फेंका हुआ मिला
कुछ लड़कों ने ईट-पत्थरों से उसका सर
कुचल डाला था
सिपाही एक हवाई-फायरिंग भी नहीं कर सका
एक केस तैयार है
थाने का इनकम बढ़ने वाला है
कि था कोई - भाईवाद आता है
एक आध लोग फुसफुसा कर उसे कामरेड कहा करते थे
गटर पर खून के छींटे थे
और वह गटर में
(शायद) कविता बनाने में मशगूल
आज उनका जवान बेटा टाई लगाकर
सामान बेचता फिरता है
बस्स
मैं पढ़ भर लेना चाहता हूं
उतना ही
उतने के लिए ही
यदि वह किसी संस्था की सांख्यिकी
आर्थिक रिपोर्ट है तो
और लिख कर नोट भरकर लेना चाहता हूं
मुझे सिर्फ वस्तुनिष्ठ परीक्षाएं देनी हैं
नहीं तो रिपोर्ट विस्तार से
सिर्फ इसीलिए पढ़ सकता हूं
कि मुझे विषयनिष्ठ परीक्षाएं भी देनी हैं
और यह मैं उस उभरे द्वीप पर जाए बिना भी
कर सकता हूं
1:30 बजे हैं जबकि
भाई फोंफ काट रहा है
चार चौकी लगने लायक
बेतरतीब किताबों, कागजों, अखबारों से भरे
नवागंतुक को अदबदा देने वाले इस इकलौते कमरे में
अब ठहर नहीं सकता मैं
लोग मुझे आज भी दढियल पढ़ाकू को बोल लिया करते हैं
अब तो चक्कर काटता फिरता हूं उभरे द्वीप का
पैर में फिरकी लगी रहती है
माथा तो भरा रहता है शोर से
खैर जो भी इद-बिद पढ़ कर
सो रहता था या सो कर पढ़ लिया करता था
मुसहरी लगे
सिरहाने किताबों अंटी उस कमजोर चौकी पर
भाई के फोंफ काटने ने थोड़ा आश्वस्त किया
और मैं उठ गया
तलब जोरों की थी
या बेचैनी जनित थी
बहुत ठीक-ठीक कहना मुश्किल
पर सिगरेट चाहिए थी
बाहर से ताला मारकर चल पड़ा
कभी पहले तो इतनी बेचैनी नहीं रहा करती थी
पहले भी इतना ही भरा रहता था माथा
आज तो 5 मिनट भी केंद्रित कि
नौकरी ...ट्यूशन...शोर ... मौतें
नहीं तो एक ही धुरी ‘वो कैसी है’
ये सारी चीजें घूम रही हैं
या माथा ही घूम रहा है
और सिगरेट, वह तो स्टेशन
या रेलवे क्रॉसिंग पर ही मिलेगी
गनीमत है, नजदीक है – वहीं मिली तीन ले लिया
‘ठंडी यदि शुरू होने वाली हो तो
अच्छा लगता है ना सिगरेट पीना
काश ... चाय भी साथ होती’
धुंआ ज्यादा सघन है शायद
मेरे साथी को चिढ़ है इस धुएं की गंध से
और वह इस समय कहां- टांग तुड़वाए पड़ा है
और जली सिगरेट आज पहली बार मुझे
बिंदी-सी क्यों लग रही है
सिगरेट की राख जो राख-सी नहीं
उनके निशान चाहकर भी ढूंढे नहीं मिलेंगे कल को
और मैं बढ़ता हूं… पुन: द्वीप (वही भूल)
रेलवे-क्रॉसिंग पार कर आगे बढ़ता जाता हूं
सीधे जिधर बाई-पास है
मुझे दिखती सी लगती है- बंद ग्रिल में जली ट्यूब लाइट
जली सिगरेट दूसरों को भी बिंदी सी दिखती होगी क्या ?
इसी बायीं वाली पोखर में तो आएगी छठ में -
जबकि बहुत रात है - इलाका बदनाम है
दिन-दहाड़े ही हो रहे निमोछिए लड़कों के
मर्डर से अधीर मैं
क्यों इतना धैर्य धरे हूं
और
अब सीढि़यां चढने को तत्पर
कि उपर बाई-पास पर चढ़ते ही शायद दिख पड़ेगी
वो
बंद-ग्रिल में जली ट्यूब-लाइट की रोशनी में
चढता हूं -
यह बाईपास है
एकदम अंधेरा
गाड़ियां सांय-सांय कर पार कर रही हैं
कुछ भी हो सकता है यहां
झूठा एनकाउंटर बनाया जा सकता हूं
नहीं तो पकड़ा जा सकता हूं
(प्रशासन की नाक में दम है)
या नहीं तो
किसी भी पार्टी का आदमी समझा जाते हुए
टीप दिया जा सकता हूं
बस्स हवा है
और हवा है
इतना भर कि उड़ाने को
नाकाफी
अंधेरा व्याप्त है
संभावनाओं के साथ।
युद्ध आम आदमी, विशेषांक 2002 नई सदी का युवा स्वर मोटा पाठ