एक और बच्चा मर गया / सुदीप बनर्जी
एक और बच्चा मर गया
गिनती में शुमार हुआ
तमाम मेहनत से सीखे ककहरे
पहाड़े गुना भाग धरे रह गए
शहर के स्कूल से जाकर
सैकड़ों नंग-धडंग बच्चों के
रक्खे-फ़ना शरीक़, गो कि थोड़ा शरमाता हुआ
आख़िरकार आदिवासी बन गया
कोई तारा नक्षत्र नहीं बना फलक पर
इतनी चिताएँ जल रही है
पर रोशनी नहीं, थोड़ी गर्मी भी नहीं
इतने हो रहे ज़मींदोज़ पर भूकंप नहीं
ईश्वर होता आदमक़द तो
ज़रूर उदास होता
यह सब देखकर
सिर झुकाए चला गया होता
पर आदमक़द आदमी भी तो नहीं
ईश्वर का क्या गिला करें
सिर्फ़ शायरों की मजबूरी है
दुआएँ माँगना या थाप देना
इस निरीश्वर बिखरे को
बिलावजह वतन को
जंगलों को चीरकर
आते नहीं दीखते कोई धनुर्धारी
आकाश रेखा पर कोई नहीं गदाधर
केवल उनके इंतज़ार में गाफ़िल
मैं ख़ुद को नहीं बख्शूँगा सुकून
इस मुल्क के बच्चों के वुजूद से
बेख़बर, बेजबाँ ।