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एक औरत / केशव तिवारी
Kavita Kosh से
मेरे भीतर भटक रही है,
एक वतन बदर औरत
अपने गुनाह का सबूत
अपनी लिखी किताब लिए ।
दुनिया के सबसे बडे़ लोकतन्त्र
का नागरिक मैं
उसे देख रहा हूँ सर झुकाए ।
जहाँ मनुष्यता के हत्यारे
खुले आम घूम रहे हों
वहीं सर छुपाने की जगह
माँग रही है वह ।
वह कह रही है
यह वक़्त
सिर्फ़ क़लम की पैरोकारी
का नही है
अपने-अपने रिसालों से
बाहर निकलने का है
उनसे आँख मिलाने का है
जिनके ख़िलाफ़
लिख रहे हो तुम