भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
एक कँगूरा / दिनेश कुमार शुक्ल
Kavita Kosh से
सब कुछ बिखरा हुआ पड़ा है
ध्वस्त पड़ी है सारी निर्मिति
किन्तु बचा है एक कँगूरा
साबुत सीधा सधा हुआ जो
ताक रहा है आसमान को
अपनी आँखों की ताकत पर
साधे हैं दुनिया जहान को
आस्मान को
एक कँगूरा......
जाने किस माटी से निर्मित
जाने किन हाथों की रचना