एक खंडहर एक अफ़सोस / मृत्युंजय कुमार सिंह
पढ़ पाओ तो पढ़ लो
मैंने समेट रखा है अपने भावों को
मेरे हाथों की लकीरों में
निश्चित रूप से
थोड़े शीतल और कठोर पड़ चुके हैं
क्योंकि दिल में टिके रहने वाली गर्मी
कैसे रहेगी भला इतने दिनों?
ज्ञान चाहे शब्दों का हो
या अनुभवों का
चिपका पड़ा है पेशानी पर
परत दर परत
व्याकरण का लय और सौंदर्य
चाहे मिले न मिले
वाक्यों के टूटे-फूटे ढाँचों में
मिलेगा तुम्हें वह सब -
जो मैंने देखा, सुना और बाँचा है
आँखों की पुतलियों में
अभी भी जमी होंगी
मेरी कल्पनायें
और उन्हें साकार करने को जुटाए
सुख-दुःख का रेत-गारा
उम्मीदों की ईंट
विश्वास का साँचा
ग़ौर से देखो तो मिलेगा
यहीं कहीं सिमटा
इनके खंडहर बने रहने का अफ़सोस भी।
यह सब कुछ
यूँ तो ढंका जा सकता है
कुछ गज़ क़फ़न के नीचे
या गाड़ा जा सकता है
कुछ बालिश्त गहरे
लेकिन इनका अस्तित्व नहीं मिटता
ये रहेंगे ऐसे ही अक्षुण्ण
अपनी नश्वरता के सत्य में लिपटे
प्रतीक्षारत
ताकि जब तुम भी आओ
यहीं कहीं, आसपास
ज़मीन से कुछ बालिश्त गहरे
अपनी नश्वरता के सत्य में लिपटे
तो पूछ सकें -
क्या ऐसा ही
एक खंडहर लाये हो तुम भी ...
एक भाव, एक ज्ञान
एक कल्पना, एक अफ़सोस?