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एक ख़्वाहिश / त्रिपुरारि कुमार शर्मा

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एक ख़्वाहिश है अधूरी-सी कुछ महीनों से
हर एक बूँद जो बारिश की फ़लक से उतरे
तुम्हारे जिस्म को छूता हुआ मुझ तक आये
भटक कर रास्ता अपना आँधी का टूकड़ा
सामने मेरी आँखों के यूँ गुज़र जाये
कुछ इस तरह टूटे दरख़्त की पत्ती
कई परतों में बिछकर ज़मीन को ढँक ले
हवा की सूखी हुई सतह पर
फूल की पंखुड़ी भी बहने लगे
दुआ है मेरी कि और तेज़ बारिश हो
बदन में मेरे कुछ कपकपी-सी भी उठे
दीये के लौ की तरह होठ थरथराने लगे
सर्द मौसम में सारे दाँत किटकिटाने लगे
ठीक उस वक़्त तुम नज़र आओ
स्याह रातों में जैसे एक जुगनू
अपने बालों से तोड़ कर खुशबू
मेरी रातों में एक महक भर दो
अपनी नज़रों से बाँध कर मुझको
सर्द लम्हों को ज़रा गर्म करो
नर्म तलवों से मेरी धड़कनें सहलाते हुए
सुनहरी रूह की राहों से कभी गुज़रो न...