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एक गाँव-गाँव के घर / रामकृपाल गुप्ता

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लघुकाय तिमिर आच्छन्न गाँव
लघु आठ हाथ के छप्पर से कुछ ढँकी-खुली
मिट्टी की खदरी चितकबरीदीवारें
पानी की धारों से दर-दर पर कटी-फटी
चेचक के दागों-सी उभरी बौछारें
यह गौरेये का नीड़
नहीं आवास मनुज का
नहीं-नहीं मानव के तन में पशु का
दर्जन भर बच्चे-बच्चीनाती पोते
माँ-बाप और बुढ़िया दादी दादा भी
नववधू और बेटा भी
सिमटे रहतें हैं।
गुजर-बसर करतें हैं
बस घास-फूस के नन्हें-सें इस घर में
चूहे के सुघर विवर में
इनके साथी अनगिनत साँप-बिच्छू-गोजर
मक्खी-मच्छर-खटमल-चीलर
विचरण करती स्वच्छंद लटों में जुआँ
द्वारे के घूरे पर कौओं की काँव-काँव
और रात हुई तो हुआँ-हुआँ बस हुआँ।
हर गली-गली दुपहरिया में
तिजहरिया अँधहरिया में
डोला करतें हैं भूत प्रेत,
किल्लोल किया करती चुरइन
बगिया में बँसवरिया में
मन के भय आँखों की शंका
की धरती पर
होता है संस्कृत पुनर्जन्म जीवन काये भी द्विज हैं
युग-युग के शाश्वत सत्य सदृश सम अचल अटल
री देख-देख मानवता ये ऋत्विज हैं
तन पर अतीत का रंग निखरता आया
इनके जीवन की डोर बँधी
ओझा-सोखा की माया
ये चेतन घर नित रोग शोक से जर्जर
दो बिस्वा भू पर इनकी गति
प्राणों की गतिविधि निर्भर
क्या पाते बाबू साहब के घर खट आते
माँ-बहन बेटियों-बंधुओं के लज्जा के चाम उधड़ जाते
उनकी ज़ुबान की चाबुक से
बिक जाते दो मुट्ठी पर
क्या कम जीवन बढ़ जायेगा
दो ही क्षण
गम इनकी छाती से चिपकेजग इनका ऊसर बंजर
जीतें हैं दिनभर मर-मर
फिर भी नारी हैं उर्वर
हर साल सुभागी या सुखनन्दन से
घर होता सस्वर, सोहर झूमर।
पर भाग्य सुभगिया सुखुआ का
सोता-जगता उस मलिन झोंपड़ी के अन्तर में
कोनें में है जहाँ दीये की धुआँधार लौ, दीन खिन्न
ताखे के ऊपर सँजो रही
उनके मस्तक का विजय चिन्ह
काला-काला
अपने में पूरा नहीं बदलने वाला।
मन की आग आँख के पानी में
गलता है रक्त-मांस
पीते बच्चे चुचकी छाती से चिपके
फिर भी पिचकते गालों की अरूणाई
देखा करती शायद अपना निश्चित भविष्य
खोड़रों के भीतर से आँखे मुरझाई।