एक छवि / आलोक श्रीवास्तव-२
कैसे हो सकता हूँ भला दुखी
कैसे हो सकता हूं उदास
खोया मैंने बचपन का प्यार
कैशोर्य का एक चेहरा
छिप गया
जाने कितनी ऋतुओं की दूरी पर
जीवन की हलचल में
लीन हो गईं
सपनीली वे आंखें
फिर दीवारें
तिलिस्म
रहस्यमय खंडहर
शहर एक रोशनी में डूबा
एक सागर...
सपना बन कर छलती एक छवि का जादू
कितने टुकड़ों बंटा ...
एक आंचल
जिसमें हवाओं में फूल टंके थे
आते वसंत की महक से लदा
ओझल हुआ
समय की नहीं
यह सब जीवन की कारगुज़ारी थी
पर कैसे हो सकता था भला दुखी
उन सपनों की छायाएं तो जाती थीं
काल को पार करती
हज़ारों बरस पहले
मोहनजोदड़ो की गलियों तक
सदियों पहले की
वेनिस की एक सड़क तक
विदिशा तक
सिंहल-द्वीप से
मलय-सागर तक..
गंगा के पानी पर झिलमिल करते दीपों तक
जाने किन-किन पगवाटों
बस्तियों, जंगलों, शहरों तक
कितने समुद्रों
कितनी भोरों तक
भला कैसे होता उदास
सभ्यता का एक काफिला
गुज़रता दिखता रहा
इतिहास के महापथ पर
कितने युद्धों की कितनी छायाएं
कितने अकाल
मरुभूमि बनी धरती...
कितनी जंजीरें दिखती रहीं
पीली सरसों के खेत
हरी धान पर उड़ता एक आंचल
सोन पर, पद्मा पर
विपाशा और रेवा पर
आते पैरों की छाप
नए देशों की तलाश में निकले नाविक
बल्टिक से क्षिप्रा तक
और नील से दजला तक
अपना स्वत्व खोजती
एक छवि
हमेशा रही सामने
फिर भला
कैसे होता दुखी
कैसे होता उदास ।