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एक डग, तीनों लोक, चौदह भुवन / रजत कृष्ण

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बस, सप्ताह भर दूर है दीवाली
साफ़-सफ़ाई में तल्लीन है गृहिणी ।

गृहिणी सही-सही जानती है
किस डिब्बे में दाल है, किसमें बड़ी
किसमें साबुदाना और किसमें सेंवई ।

एक-एक जार, डिब्बे, थैले उतारती
पोंछती है ऐसे, जैसे अंगोछ रही हो
धूल खेलकर लौटे बच्चों की देह ।

सफ़ाई करते-करते हाथ लग जाता
शादी का अलबम जब
चमक उठती आँखें उसकी एकदम से
डूब जाता चेहरा लाली में जैसे ।

दीवाली पर सफ़ाई करती गृहिणी की देह
जैसे देह नहीं, ग्रह-उपग्रह हो —
अपने अक्ष पर अनवरत घूमता हुआ ।

दीवाली की सफ़ाई में तल्लीन गृहिणी को
जो देख लें स्वर्ग में रमे देवगण
डूब जाएँ शर्म से —
अरे ! कौन यह …
कौन ? – नाप रही है जो एक-एक डग में
तीनों लोक और चौदह भुवन !!