एक तथाकथित सलाह / ओमप्रकाश सारस्वत
रंग जितने भी थे
सब जूतों पे लग गये
चेहरे वर्ष भर उदास देखते रहे
शायद कोई मौसम पंसारी बनके आ जाए
परंतु देखा जब
तो कथाकथित सुधाकरों के
ड्रॉईंग रूमों की
कार्क लगी बोतलों में बन्द थे सब रंग
खुशियों की तरह
सब बोतलों में
उनका व्यक्तित्व
उदभासित हो रह था
वर्ण-दर-वर्ण-बोतल-दर-बोतल
कहीं हरा तो कहीं जामुनी
कहीं बसंती तो कहीं सुर्ख
गौर करने पर
एक इन्द्रधनुषी चरित्र उभर आता था
जो बरसात का होकर भी
किसी खास मौसम का नहीं होता
हमारी जिज्ञासा पर
वे बोतल के कार्क निकालने की अदा में
स्वयं को उदघाटित करते हुए बोले
पत्थर में छेनी की तरह
प्रस्तावित करों खुद को या
धरती में जड़ की तरह गड़ कर
केवल रस चूसो
मिट्टी की गन्ध
केवल भूख देती है__ भूख
इसलिए अगर बटोरना है
तो मौसम बटोरो
वैसे तो
प्रकृति के साथ भी
बड़ा अत्याचार लग पड़ा है होने
कि पत्ती अभी निकली नहीं
और बकरियाँ पहले ही लग पड़ीं
जीभ लपलपाने
फिर भी अगर हरियाली बचानी है
(केवल अपने लिए)
तो एक हाथ में तगड़ा संगल
और दूसरे में मजबूत डण्डा रखो
देखो ये अदने जानवर
अब मौसम के रंगों के साथ-साथ
हवाओं का रुख भी
लग पड़े हैं पहचानने