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एक तलैया की याद में / अनुपम सिंह

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गाँव के बीचों-बीच
लहराती थी एक तलैया
जेठ की दुपहरिया में
ठण्डी हवा बनकर ।

उसकी पीठ पर ऐसे स्वर होते
बच्चे जैसे दादी से कह रहे हों
मेला चलने के लिए ।

भैंसें चली आतीं नहाने
अपना कुनबा लिए
मुँह बोर-बोर नहातीं
सगी बहनों-सी भेटती
एक-दूसरे से ।

लड़कियाँ हर साँझ आतीं किनारे पर
बतियातीं
उनकी बातों को सुन-सुन हंसती रही वह
कभी शिकायती नहीं हुई
उनके पिताओं से ।

रात होते ही खरहे
दिन की लुका-छिपी
डर-भय भूल
आते उसके पास
उसे सलामी देते
फिर पीते पेट भर पानी ।

लौट आती
तुनक कर चली गई खिचुही
लोमड़ी, सियारिनें आतीं
पानी पीतीं, दम भरतीं
मछलियों से बाते करतीं
फिर आने को कह
लौट जातीं अपने बच्चों के पास ।

जिन पेड़ों को उसने सींचा था
बड़ा किया था
बिना एहसान जताए
वे गजब के समझदार थे
बिना थके छाया करते रहे उस पर ।

चिड़ियों के बच्चे जब चीं..चीं..कर गला फाड़ते
चिड़िया झिझक-झिझक कर
माँगती दो बून्द पानी
चिड़िया की झिझक से
लाल-पीली हो तलैया
चली जाती उस किनारे
कि तुम दो बून्द पानी के लिए
क्यों शर्मिंदा करती हो मुझे

तब चिड़िया कहती –
‘बहन दो बून्द पानी की क़ीमत पर ही
ज़िन्दा रहेंगे हमारे बच्चे’
चिड़िया की बात सुन
नम हो जाती मछलियों की आँखें
वे फिर-फिर भर जातीं आभार से
इस तरह मज़बूत होता
उनके बीच भरोसे का पुल ।

तलैया अपनी आत्मा पर कोई कलुष लिए बिना
रात-दिन
साँझ-दोपहर
सबको पिलाती रही पानी ।

मेंढ़क, कछुए, मछलियाँ
उसकी रसोईं में भोजन कर
सोते उसी की तलहटी में
तितिलियाँ उड़ते-उड़ते
धप्पा कर जातीं उसकी पीठ पर ।

हम जो मनाते रहे अपना त्यौहार
बान्धते रहे एक दूसरे से गिरह
हम जो धरती के छाती पर लगाते रहे
बारूद का ढेर
और नदियों की पीठ पर
पाँव का निशान छोड़ विजयी हुए
हम जो इतराते रहे अपने कर्ता
और निर्माता भाव पर
सोखते रहे उसकी आत्मा का जल
बिना क्षमाभाव के
और ख़ाली होती रही वह बिना शिकायती हुए ।

एक दिन जब
चटकने-चटकने को हुई उसकी आत्मा
उसने समेट लिया अपना असमय बुढ़ापा
और दूर जाकर बिखेरी अपनी क्षार
कि जिससे सुखी रहें वे बच्चे
जो सवार हुए थे उसकी पीठ पर
कि उन लड़कियों को लग न जाय
असमय बुढ़ापे का रोग ।

जब गाँव छोड़कर चली गई वह तलैया
गाँव के किनारे पर सर पटक
फेकरने लगी सियारिने
भैंसों ने सूनी आँखों से दूर तक निहारा उसे
पेड़ों को बुखार चढ़ा उत्तप्त हो गईं उनकी सांसें
भरोसा टूट गया चिड़ियों का
बेघर हो मरी मछलियाँ
कछुए, मेंढ़क, खरहे
लोमड़ियाँ, सियारिनें
सब छोड़कर चले गए गाँव ।

एक बार जब आग लगी उसी गाँव में
लोग नहीं छटका पाए
खूँटे से अपनी भैंसे
अपने जानवर
आग लगे छप्परों के गुर्रे काटे गए
फिर भी नहीं बचा उनका घर
गुहार लगाती औरतों के मुँह फेफरी पड गई
बच्चे आग से ऐसे सहमे
कि जीवन भर उबर न पाए ।

घर जले
खूँटें, पगहे और गायें जलीं
बुधनी की बकरियाँ जलीं
खेत-खलिहान जले
रमई काका की दुकान जली
झुलस गए सब पेड़
औरतें ज़ार-ज़ार हो रोईं
कि कूची, बढ़नी सब जल गईं
बून्द भर पानी न मिला बुझाने को आग ।

गाँव की दशा-दिशा देखने पुरोहित बुलाए गए
मन्त्र पढ़े गए
कुएँ पूजे, जगतें पूजीं ,
ताल-तलैया उसके किनारे पूजे
गाँव भर की औरतों ने अर्घ्य दिया
गँगा से आँचर पसार कहा –
‘हे गंगा ! हमारी इस तलैया में जल भर दो
हे सागर के पुरखों का उद्धार करने वाली गंगा !
हमारे बच्चों को
हमारी फ़सलों को
हमारी भैसों, गायों, बैलों की
आँखों में यह जो आग जल रही है, बुझाओ, माँ !

औरतें गँगा से
अपनी उस तलैया से
लौट आने के लिए
फिर से लहराने के लिए
कहती रह गईं
गँगा न लौटी ।

कहते हैं, जैसे सियारिनें फेकर कर मार गईं
वैसे ही फेकरती रह गईं औरतें
जब से सूखी वह तलैया
जब से चटकी उसकी आत्मा
वह दरार कभी न भर पाई
तब से वहाँ, बस, कहर ही बरसा है ।