एक तसव्वुर रह जायेगा / आलोक श्रीवास्तव-२
हमारे रास्ते अब यहां से अलग हो जायेंगे
तुम मुड़ जाओगी सपनों की ओर
जिनमें श्रॄंखलाएं हैं
तिलिस्म से रची एक दुनिया है
बहुत मैंने चाहा कि
तुममें जो एक संगीत छुप है
समूचा एक जीवन राग
वह निश्छल झरनों की तरह
चट्टानों पर बह निकले
बिखर उठे
तुम्हारे शरीर में छिपा धरती का गीत
कोपलों की गंध
हवाओं का स्पर्श
अद्वितीय लय-ताल में
मूर्तिमान हो उठे
तुम्हारा रूप
दिशाओं को अपनी लपेट में ले ले
तुम मूर्तिमान सौंदर्य
काल-वीणा का एक अक्षय राग
शक्ति का एक अटल इशारा
तुममें घिर कर खो जाए ये आसमान
ये सिंदूरवर्णी दिशाएं
नदियों का उन्मुक्त प्रवाह
मानव का आदि-स्वप्न!
इतनी विराट, ऐसी विशाल
जैसे देश की धरती हो
तुम्हारी छवि
पता नहीं कब, कैसे, मन में उतरती चली गई
मेरे हाथ न जाने कब स्वप्न गढ़ने लगे
न जाने कब तुम
नहीं रह गईं नारी
ज़िंदगी का एक धड़कता प्रतीक बनने लगीं
सहस्राब्दियों के स्वप्न की परिणति
अब तुम जा रही हो
किन्हीं अनजान घुमावों की ओर
तुममें जिन रागों के तार मैंने छुए थे
उन्हें सहेज कर रखना
तुम्हारा यह जाज्वलु रूप
जिसकी लपट से मेरी शिराएं झुलस गई हैं
अंतर का यह गहन जगत्
जिसकी मैंने एक झलक देखी है
शायद कुछ शब्द, कुछ स्मृतियां
कुछ विचार, कुछ स्वप्न बन कर यहां छूटा रह जाएगा
शायद एक कसक बन कर
जर्जर कर देने वाला एक अभाव
एक आलोड़न बन कर
कुछ पेड़ों की छायाएं रहे जाएंगी
कुछ नदियों का निनाद
कुछ ऋतुओं का रंग
और चांद की रोशनी में देखा
एक चेहरा
एक तसव्वुर रह जाएगा
तुम चली जाओगी
यह कैसा प्यार था
जिसमें
वोल्गा से लेकर यांग्सी और
नील से लेकर दज़ला और गंगा तक के
शब्द गूंज उठे थे ।
ब्रह्मपुत्र से शिकवे करती
एक विद्रोहिणी चली आई थी
रोशनी के अनंत कण लिए
यह कैसा प्यार था
जिसमें अजीब-से सपने थे
अजीब-से ख़्यालात
अजीब-से मौसम थे
और एक अजीब-सा दर्द था
जिसमें न जाने कैसे-कैसे अज़ाब थे
मैंने कहा था तुमसे
डरना नहीं तुम
मेरे पास नहीं है कोई काली रात
कोई फ़सील, कोई दुःस्वप्न
पर फ़सीलें वहां थीं,
दुःस्वप्न वहां थे
और एक अथाह काली रात थी
बाहर एक और दुनिया थी
मैंने तुम्हें उस दुनिया में खो दिया
जो मेरी नहीं थी
एक दुख है तुम्हारे लिए
एक दुख है उस नाते के लिए
जिसे हम प्यार समझ बैठे थे
तुम्हारी इस विदा के लिए है दुख
एक आषाढ़ के लिए
एक चैत्र के लिए है दुख
एक वसंत के लिए
पलाश रंगे एक वन के लिए
पीली सरसों से आच्छादित
धरती के लिए एक दुख
यह कैसा दुख है
जिसमें आंसुओं से डबडबाया
एक चेहरा हंसने की कोशिश कर रहा है
यह तुम्हारा चेहरा है
जिस पर अब भी ऋतुओं के निशान
और हंसी बचे रह गए हैं।
यह चेहरा भी दूर चला जाएगा
अपना यथार्थ जीने
अपना सत्य जीने
आधी-आधी रात तक जागता
यह विशाल महानगर रह जाएगा
सूने खड़े इसके लैंपपोस्ट
घुमाव लेते रास्ते
और चट्टानों पर टूटता सागर
यह कैसा प्यार था
जिसके अंत में
एक धूसर क्षितिज के परिदृश्य में
खंडहरों का एक बिंब उभर आना था
एक मध्यकालीन क़िला
एक नदी
चंपा फूलों से ग़मकती
एक रहस्यमयी रात
एक नाव
और पतवारों की आवाज़ से
पानी में उठते छपाके
और फिर एक स्त्री
आवाज़ की दिशा में
एकटक देखती
यह कैसा प्यार था
जिसके अंत में
वे गलियां रह जानी थीं
जहां मैंने तुम्हारी खुशबू महसूस की थी
बसें, ट्रेनें, रास्ते, मक़ानात रह जाने थे
एक विपन्न सन्नाटे में छूटे
और तुम्हें
सिर्फ़ तुम्हें चले जाना था
तुम्हें जाते देख रहा हूं
और एक पूरा संसार मेरे भीतर
दरकना शुरु हो गया है
भीतें गिर रही हैं
यह कैसा कहर है
कायनात पर
सन्नाटा तारी है
यह एक अजीब शाम है
जिसमें ये कैसे तो उदास से मंजर
सामने से गुज़रते जा रहे हैं
तुम जा रही हो
और पहले-पहल देखा तुम्हारा चेहरा मुझे याद आ रहा है
तुम्हारा किशोर चेहरा
ज़िंदगी की जाने किन-किन धूपों में तपा
फिर भी कितना टटका, निर्मलता और ओज से दीप्त
बस की रेलिंग पकड़े
दिसंबर के दिन की तुम्हारी एक छवि याद आ रही है
वसंत की वह दोपहर
और पीले रंग की मां की साड़ी में लिपटा तुम्हारा
बिंब कितना ताज़ा हो उठा है
इस उदास शाम में
समुद्री हवाओं से फहर-फहर उठता
तुम्हारा धानी दुपट्टा
और कंधों पर ठहरे केश
अब स्मृतियां बन कर रह जाएंगे
कितना अजीब है कि न तो तुम कभी भी
गहन अतलांतों में बिलख-बिलख उठता
मेरा यह दर्द समझ पाओगी
न कभी मै तुम्हारा
जीवन-सत्य समझ सकूंगा
यह कैसा प्यार था
जिसे ऐसी अवसन्न निराशा में
अस्त हो जाना था
एक चेहरा जिसके लिए
चांद की रोशनी और फूलों के रंगों की उपमाएं
नाकाफ़ी थीं
इतना बेगाना, इतना बेमुरव्वत हो जाना था
जब भी वसंत के फूल खिलना शुरु होंगे
आषाढ़ के बादल क्षितिज पर झुकेंगे
और दिसंबर की वैसी ही धूप जब भी फैली होगी
कोई बिलकुल ख़ामोश हो जाएगा
बुत की मानिंद
और हवाएं बहती रहेंगी
समंदर अविचल हिल्लोलित
रोशनी में दमकता होगा ।