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एक दिन / द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी
Kavita Kosh से
एक दिन राह मंजिल बनेगी स्वयं।
बैठ थक कर न राही अभी बीच में
सोच मत यह कि मंजिल बड़ी दूर है;
सिर्फ इतना कि जो यह कदम उठ रहा
वह अधूरा रहा या कि भरपूर है।
सामने देख, वह धार बहती हुई
बात कहती हुई यों चली जा रही-
‘एक पल भी रुकी हूँ नहीं इसलिए
एक दिन सरित् सागर बनेगी स्वयं॥1॥
सोचता तू रहा बावरे, जिन्दगी
कीडगर पर बिछे फूल ही फूल हैं;
किन्तु क्यों थम गये आज तेरे चरण
सामने देखकर ये बिछे शूल हैं।
भूल थी, फूलमय-शूलमय जिन्दगी
की डगर; किन्तु मत सोच, बढ़, देख तू
शूल की गोद में जो पली वह कली
एक दिन फूल बन कर खिलेगी स्वयं॥2॥
25.7.55