एक दिन मैं मारा जाऊँगा / शिरीष कुमार मौर्य
मरना नहीं चाहूँगा पर कोई चाकू घुस जाएगा
चुपचाप
मेरी टूटी और कमज़ोर बांईं पसली के भीतर उसी प्यार भरे दिल को खोजता
जो हज़ार ज़ुल्मों के बाद भी धड़कता है
कोई गोली तलाश लेगी मेरी कनपटी का रास्ता
मेरे दिमाग़ में
अचानक रुक जाएगा विचारों का आना
कल्पना का गढ़ना
स्मृतियों का रोना और सपनों का होना
सबकुछ अचानक रुक जाएगा
एक धमाके की आवाज़ के साथ
शायद कोई दोस्त ही मार देगा मुझे जैसे ही बात करके पीठ मोड़ूँगा मैं उससे
शायद प्रेम मार देगा मुझे
शायद मेरा अटूट विश्वास मार देगा मुझे
मुझे मार देगा शायद मेरा शामिल रहना
शायद कविता लिखना मार देगा मुझे एक दिन
लेकिन सिर्फ़ कविता लिखना नहीं,
बल्कि शामिल रह कर कविता लिखना मारेगा मुझे
एक दिन मैं मारा जाऊँगा
ऐसी ही
कुछ अनर्गल बातें सोचता हुआ
क्योंकि
आज के समय में सोचना भर काफ़ी है
किसी को भी मार देने के लिए !
पर इतना याद रखा जाए ज़रूर
कि मरूँगा नहीं मैं
मुझे कोई मार देगा
मुझे
मृत्यु दिखाई नहीं देगी
सुनाई भी नहीं देगी
मुझे तो दिखाई देगा जीवन लहलहाता हुआ
मुझे सुनाई देगी एक आवाज़ ढाढ़स बँधाती हुई
जीवन और ढाढ़स के बीच ही कहीं
मारा जाऊँगा मैं
किसी अलग जगह पर नहीं
जहाँ मारे जाते हैं मनुष्य सभी एक-एक कर
मैं भी मारा जाऊँगा वहीं !
तुम बस याद करना मुझे कभी पर याद करने से पहले अभी रुकना
पहले रुक जाएँ मेरी साँसे
थम जाए ख़ून
मर जाऊँ ठीक तरह से तब याद करना तुम मुझे
स्मृतियाँ ही व्यक्ति का व्यक्तित्व बनाती हैं
इसलिए
स्मृतियों के किसी द्वीप पर तुम याद करना मुझे