एक नगर और रात की चीखें / महेन्द्र भटनागर
सैकड़ों श्रद्धालु
हाथ जोड़े खड़े होंगे
नत-मस्तक हो रहे होंगे।
वृक्षों, गुम्बदों, भवनों,
खपरैलों, टिनों पर
कुहर-कण पहने
अँधेरा उतरता चला आ रहा है,
जाड़े की शाम
सात बजे से ही गहरा गयी !
घरों के द्वार-वातायन
बंद हो गये !
सड़कों पर
हलकी पीली रोशनी फेंकते हैं
बिजली के खम्भे,
दो-एक स्कूटर
या मोटर साइकिलें
भड़भड़ाती हुई निकल जाती हैं,
कभी-कभी कहीं ढोल बज उठते हैं।
बस-स्टैण्ड पर
लाउड-स्पीकर अभी बोल रहा है
अमुक-अमुक जगह पर जाने वाले
यात्रियों को आगाह करता हुआ।
रात का ठण्डापन बढ़ता जाता है !
रात का सूनापन बढ़ता जाता है !
'यह आकाशवाणी है,
रात के पौने-नौ बजे हैं।'
और
फिर सर्कस के शेर
दहाड़ने लगे
(ज़रूर दस बजने वाले होंगे।)
सोने से पहले
नींद की गफ़लत में
डूबने से पहले
एक भिखारी
चीखता है --
'दो-रोटी और दाल,
पेट का सवाल !
है कोई देने वाला
इतने बड़े-बड़े घरों में ?
बस, दो-रोटी और दाल,
मैं भूखा हूँ।'
किसी घर के द्वार नहीं खुलते,
कहीं से कोई आवाज़ नहीं आती।
भिखारी अड़ जाता है :
'इस गली से
मैं
रोटी लिये बिना
नहीं जाऊँगा !'
और वह चीखता जाता है --
'दो-रोटी और दाल,
पेट का सवाल !'
उसकी चीख
सबको दहला देती है,
सुख-सुविधाओं को चैंका देती है !
(भिखारी यदि ख़ूनी बन जाये,
दरवाज़ा तोड़ कर अन्दर घुस आये!)
आतंक की परतें
चेहरों पर बिछने लगती हैं,
घरों की रोशनियाँ
बुझने लगती हैं,
दरवाज़ों पर ताले
झूलने लगते हैं !
भिखारी
चीखता रहता है,
अपनी शक्ति के बाहर
चीखता रहता है।
और जब
किसी दयालु के दरवाज़े ने
उसे कुछ शान्त किया,
उसके बुनियादी सवाल को
एक रात के लिए
हल किया,
सन्नाटा और मुखरित हो चुका था,
वृक्षों, गुम्बदों, भवनों,
खपरैलों, टिनों पर
कुहरा और संघनित हो चुका था !
रात
और ठण्डी और काली
हो चुकी थी,
रात
निहायत बेशर्म और नंगी
हो चुकी थी !