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एक नगर नागफनियों का / कुबेरनाथ राय

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इस कविता को लिखते समय टी. एस. इलियट का 'Waste Land' तथा मुक्तिबोध का 'चाँद का मुँह टेढ़ा है', ये दोनों काव्यग्रन्थ मेरे मन में अपना प्रभाव विस्तार कर चुके थे। रूप और भंगिमा दोनों क्षेत्रों में इन कवियों का ऋण स्वीकार करता हूँ। परन्तु कविता के ढाँचे में अंकित स्थितियाँ और भाव अनुभावलब्ध है। इसका निष्कर्ष भी मेरा अपना है। १९६६ में लिखी गयी यह कविता 'ज्ञानोदय' के मार्च ६७ में एक वर्ष बाद प्रकाशित हुई थी।

मंगलाचरण

तो धरती तू भी झूठ बोलती है।
तुम्हारी, कोमल नरम नीलिमा
तुम्हारी, कोमल नरम हवा
तुम्हारा, कोमल नरम आकाश
तुम्हारे, कोमल नरम खेत
मेमने मृग शावक
श्‍वेत श्याम बछड़े
अरुण पीत पाखी
प्रात और सन्ध्या के गान
ओह, धरती तुम मोहक हो, माया हो, माता हो
पर आह, तू भी झूठ बोल गयी!
कितना बड़ा धोखा हुआ
कितनी बड़ी ट्रेजेडी हुई
जननी, तूने दुश्मन का साथ दिया
तूने जनम दिया
पर अपनी नहीं हुई!

"वत्स किसने कहा था तुम्हें
जननी और जनक विश्वसनीय होते हैं?
युग है चिन्ता का, शंका का,
भय का, अविश्वास का।
किसने कहा था तुम्हें-
जननी जनक विश्वसनीय होते हैं?"

फिर वह वाणी मौन हुई।
टका-सा जवाब मिला।
प्रसविनी वसुन्धरा मुझे नकार गयी!
पर मैं नहीं।
मैं तो भी स्वीकारता हूँ
धरित्री, तुम्हारे दिये हुए दान
क्षुधा और पिपासा
साहस और भाषा।
धरती, तुझे मैं स्वीकारता हूँ।

सर्ग १ : फाउस्ट और दुश्मन

(१)
कल इस नागफनियों के महानगर में
मिल गया दुश्मन- एक रेस्त्राँ में बैठा हुआ
'सिंगल' कप चाय मैं था पी रहा-
श्‍वेत धवल वेश और कोमल केश
ओठों पर हलकी मुसकान
लहजे में दिल्ली का जोर
लखनऊ का नाज और बम्बई की तान
सिगरेट का पैकेट बढ़ा, लीजिए!
('नहीं, धन्यवाद!') प्रश्न पर प्रश्न
वह पूछता रहा- और मेरे शीश पर
कालमेघ मँडराता रहा संशय और शंका का;
दूर कहीं पेड़ पर काक विश्वास हीन
भाषा बोलता रहा- "हाजिर हूँ मैं, सर!"
दुश्मन बोलता रहा- "कोई सेवा मेरे योग्य......."
मैं था मन्त्रमुग्ध उर्दू और हिन्दी की
मिली-जुली कल्चर का नमूना देख।
तब तक वह मार्क्स और नेहरू
रवीन्द्र और इक़बाल
ताज और अजन्ता
आदि की चर्चा करता रहा और बताता रहा-
'अवाम' की खुशी के लिए
इतिहास संशोधित हो,
दास्तानें गढ़ी जायें, भाषा गढ़ी जायँ
प्रगति के दस्तावेज को जबान 'इण्डियानी' हो
गान्धी-चिन्तन से आगे...." आदि-आदि

बातें बताता रहा
मैं भी जताता रहा
मैं कप पोता रहा चुपचाप
(इकन्‍नी की चाय कब तक चले?) दुश्मन भी
अन्त मे हारकर कहा- "अच्छा मैं चला।
दर्शन होंगे फिर जनाब के कभी।"
जाती हुई एक झलक! नजर गयी पीठ पर
मैं काँप उठा- दुश्मन को गर्दन में
चमकती पीली कौड़ी-सी आँखें थी....
और मुँह था पीठ को तरफ़.... मुँह नहीं फण!
मै कांप उठा, जो मानवाकृति मुँह था
बोलता रहा घण्टे-भर; वह था काठ का
गढ़ा गया दूर देश-कुटिल दक्ष हाथों से।
ओह काठ की जबान भी,
कितनी भद्र होती है- सोचकर, काँप उठा।

(२)
चलो उस पार केतकी वन में
जहाँ बरसात गन्ध से पागल है
जहाँ धरित्री छन्द से आकुल है
जहाँ आकाश मुफ्त कविता लुटा रहा
चलो, चलो, उस केतकी वन में
जहाँ नारियाँ निरावरण कटि में
मात्र पुष्पमेखला बाँधती हैं
जहाँ हम और तुम यही मात्र दो पुरुष
शेष सब नारियाँ, असंख्य पद्मिनी नारियाँ,
कर रहीं हमारी और तुम्हारी प्रतीक्षा।
चलोगे, कवि मित्र, केतकी वन में
रूप-रस-गन्ध के चोर और डाकू
तुम और हम,
चलोगे मित्र, चलोगे?"

दुश्मन 'सुआ' बन सुनाता रहा
कथा उस सिंहल के केतकी वन की।
चुपचाप सुनता रहा, दुबका खरगोश-सा
विशाल इस नगर के 'लॉन' के कोने में;
सामने खोल रखा था, पन्द्रह सौ वर्ष पूर्व
लिखा गया एक काव्य, एक श्लोक:
["पुरा स दर्भाङ्करमात्रवृत्तिश्चरन्मृगैः
सार्धमृषिर्मघोना समाधिभीतेन
किलोपनीतः पञ्चाप्सरो यौवनकूटबन्धम।"]

"सोचते हो क्या यार कवि, छोड़ो न
चिन्ता 'अवाम' की 'कल्चर' की चलो चलें
उस केतकी वन में, चाँदी की धूप है,
स्वर्णगात नग्न देह नारियो के देश में।"
मै 'रघुवंशम्' के पन्ने उलटता रहा
भीड़ अगल-बगल गुजरती रही।

['मुन्नी तू क्यों पीछे रह गयी'
'चावल का भाव तीन रुपये किलो'
कहाँ भाई, कहाँ?'
'ओ डब्बू, मुन्नी को छेड़ो मत,
आ रानी बिटिया' 'कल उस मिल में
चार मजूर मारे गये- गोली चली.....'
'कहाँ भाई, कहाँ?'
'हाँ, तो ठीक मेट्रो सिनेमा के सामने
तीसरे खम्भे के पास.... हाँ....साढ़े छह
शाम को, टैक्सी-सड़क के उस पार
मैं और तुम-मनु और सतरूपा
पाँच गज के फ़ासले पर चलेंगे ठीक है।'
'कहाँ भाई, कहाँ?]

मैं समवेत स्वर सुनता रहा।
रघुवंशम् उलटता रहा- गौरव की कथा है
दिलीप और रघु की, राम और सीता की-
दुश्मन 'केतकी वन, केतकी वन' रटता रहा
दूर कहीं एक सुर बेसुरा बजता रहा-
"बाङ्लार माटी, बाङ्लार जल,
पुण्य हउक! पुण्य हउक!"

(३)
आधी सिगरेट बुझा, पॉकेट में रख लिया
सोचता रहा-
आहार मन्त्री का भाषण अखबार में छपा है,
चूहे के 'विटामिन' की तारीफ़ की है,
आदत बदलनी है देश को, प्रगति करनी है।
यही सब सोचता था कि चौंक पड़ा
सुना एक स्वर को, देखा एक रूप को
"क्या सोचते हो, सदैव काव्य मर्मज्ञ मित्र,
स्वप्नलीन, उर्वशी के सहचर बने...."

देखा तो दुश्मन खड़ा है, अपूर्व छवि
माथे पर सरपेंच रेशमी-अंशुकपट,
कामदार चोगा, मखमल और रेशम
स्वर्ण और रजत के तारों से मढ़ा हुआ
राजवेश अभिराम झल मल कर उठा

"चलो मित्र, तुम्हारे लिए लाया हूँ
हेलीकोप्टर यह 'इन्द्रमेघ', चलो चलो,
सागर के उस पार राजकन्या कुँआरी है
धरती उस देश की सूखी है
क्योंकि राजकन्या कुँआरी है
हरीतिमा उस देश की मर गयी
क्योंकि राजकन्या कुँआरी है
बच्चे जनमते नहीं, या जन्ममृत होते हैं,
क्योंकि राजकन्या कुँआरी है
चलो-चलो मित्र, तुम्हारी प्रतीक्षा है
प्रभु ने तुम्हारे ललाट पर राजतिलक खींचा है
तुम्हारे माथे पर छिपी हुई मणि है प्रभापूर्ण,
शीघ्र करो, जल्दी करो
राजकन्या कुँआरी है
धरती बन्ध्या है- नारी बाँझ है
हरीतिमा उदास है, जल्दी करो!
त्राहि माम्, कर रहे प्रतीक्षा तुम्हारी वे!"

दो क्षण रुका रहा फिर बोला वह-
मैं हूँ महीपति का अनुचर,
देखो यह राजमुहर
देखो यह पत्र और जल्दी करो
श!!!! बताना मत किसी से, रखो इसे
गुप्त, अति गुप्त; जनता बौखलायेगी,
लाभ क्या? चलो न, योगिनी अनुकूल है
उत्तम 'चर योग' है, चन्द्रमा सम्मुख है
इस शुभ लग्न में प्रयाण करो
दिशाओं को प्रणाम करो- चढ़ो 'इन्द्रमेघ' पर।
अन्यथा राजकन्या कुँआरी रह जायेगी
उठो, उठो, गौरव का वरण करो।"

-मैंने निहारा दुश्मन की ओर फिर एक बार
काँप उठा भय से, आँखें थी गोल-गोल
पीत वर्ण कौड़ी के माफि़क, दुश्मन ताड़ गया
बोला- "ये आँख सागर के पार से
गेहूँ के बोरों में भरकर आयी हैं
दिव्य-दृष्टि दाता हैं, चाहो तो एक जोड़े
तुम भी खरीद लो। खुलेआम मिलती हैं।
यही तो लोकतन्त्र के लाभ हैं।
फिर रुक कर कहा- "पर, चलो, उठो!
'प्राप्य वरान्निबोधत....' सागर के उस पार
राजकन्या कुँआरी है। श्रेय का वरण करो।

(४)
शाम को घास पर बैठा था- सामने
विजयदीप्त जगर-मगर क्लाइव का 'कलकटा'
उन्नत शीश हँसता था- पास में खड़ी थी
गान्धी की, उदास पत्थर की, नेत्रहीन प्रतिमा
-शिल्पकार राय चौधरी- बड़ी झंझट के बाद
कलकत्ते की छाती पर गड़ी थी कील-सी
ब्राह्मण-समाज में अछूत-सी, बे-जगह, बेशर्म,
ओह, धरती तू फट जाती नहीं? प्रतिमा
समाती नहीं?
  
ॐ मणिपद्मे हुं!" मैं सुन चौंक उठा
देखा तो बग़ल से दुश्मन गुजर रहा
साथ में थे कोई सज्जन 'भद्रलोक'
दुश्मन आज था काषाय गैरिक वेश में
तनिक रुक मुझसे यों कहा- "देखो इन्हें,
ये हैं कॉमरेड जमशेद गुहा- तंजुर और कंजुर२ का
नया एडीशन निकाला है- सुन्दर लाल स्याही में
सजा-धजा चित्रमय। बहुत बड़े प्रकाशक हैं।
वाल्मीकि और व्यास भी शीघ्र ही...."

फिर कहा- "जरा हमें जल्दी है, जाते हैं हम
काली के मन्दिर में, रक्तवरण माता की जय हो!"
'ॐ मणिपद्मे हुं!'३ दुश्मन चला गया।
'ॐ मणिपद्मे हुं' उठो, उठो कीर्ति को वरण करो
"विश्व विजय नौजवान!
विश्व विजय नौजवान!"
उठता है स्वर नये आसाम से
"चल चल रे, मोशलमान
चल चल रे, मोशलमान!"
उठता है स्वर पुराने बंगाल से
"चीन है हमारा, अरब है हमारा
काश्मीर है हमारा, जहाँ है हमारा।"४
उठता है स्वर पुराने पंजाब से
"उठो उठो री, द्राविड सन्तान
आर्य हैं नीच, तुम हो महान्!"
उठता है स्वर नये मदरास से
ॐ मणिपद्मे हुं! ॐ मणिपद्मे हुं!

ऐसे में मित्र मैं क्यों पड़ा रहूँ!
मिथिला है जाग उठा
सिक्ख है जाग उठा
तब मैं ही क्यों पीछे रहूँ भोजपुरी सन्तान!
हिन्दी का अत्याचार अब बरदाश्त नहीं।
बाबा की मोटी लाठी उठाऊँगा
कलकत्ता प्रवास के गौरव का राजचिह्न-
मोटी-सी लाठी वह और बाबा के 'प्रभुओं'
का आशीर्वाद! दोनों है साथ-साथ!
हिन्दी मुर्दाबाद! भोजपुरी वीर सन्तान हम!
हम हैं महान्, 'ॐ मणिपद्मे हुं।'
 
लगता था मेरी हुंकार सुन भीरु यह
आकाश है काँप उठा, भयभीत यू. पी.,
त्रस्त है बिहार, हम हैं वीर सन्तान!
ऐसे में मुझे लगा बूढ़े ऋषि की
दयनीय प्रतिमा की, अन्धी आँखों से झर-झर
झर रहा
परम पवित्र कुछ- नीर है या रक्त है?
पता नहीं। 'फ़र्क, क्या पड़ता है। जो हो!
ॐ मणिपद्मे हुं!'

सर्ग २ : मरण-यज्ञ

"कोथाय जाबी रे, अनू? एमन साजे-गूजे...."
"मार्केट जाबो, माँ" "कार संगे?" "दादार संगे
-तपन दा?" "आहा, तपन। ठीक आछे।
कोनो क्षति नेंई।" और यह तपन बोस
अभागा सर्वश्रेष्ठ, पॉकेट में नम्बरी नोट रख
भटका है नीली यमुना की खोज में
हजार-हजार रात-बाड़ी से बाड़ी, गली से गली
एक मरुतृषा लिये और बार-बार कि़स्‍मत ने
फल्गु के उदास तप्त बालू में ढकेल दिया-
फिर भी सोचता है नम्बरी नोटों के प्रवाह से
कभी तो धरती पिघलेगी!
नीली यमुना निकलेगी!
धरती का बोझ यह अभागा तपन बोस!
 
ट्राम लाइन के उस पार बैठे हैं
शकुन्तला-दुष्यन्त, मूंगफली छीलते हैं
हरी घास नोचते हैं, अर्थहीन बातें कुछ
कहते हैं, सन्ध्या उदास उतरती है
घर-घर दरबों में कबूतर बन्द होते हैं
वे करुणा से रोते हैं, रात उतरती है
सपनों की फैक्टरी के कारीगर गुलाम
जँभाई ले उठते हैं, काम में जुटते हैं
सड़-सड़ सड़ाक्, कोड़ों की मार और
बढ़ती है हाथों की गति, हाथों का कौशल
खिलौने तैयार होते हैं! खरीद लो
खरीद लो, शकुन्तला, खरीद लो!
गुलामों के खुरदुरे हाथों ने
सिसकती आँखों से इनको गढ़ा है।

पीठ लहूलुहान! सड़सड़ सड़ाक्!
भोली शकुन्तला दर्द के खिलौने खरीद ले
सपनों के देश में गढ़े गये
जब तक दुष्यन्त नहीं लौटता है
अँधेरी टैक्सी को साथ लिये।

वृन्दावन जलता है
नीली यमुना में कंस ने तुम्हारी
हजार-हजार गायों को काट कर फेंका है
पानी मँहकता है, बदबू आती है
राधिका की चिता जलती है
मैं सस्वर पढ़ता हूँ गीत एक :
["स्मरगरलखण्डनम् मम शिरसि मण्डनम्
देहि पद पल्लवमुदारम्।"५]
किन्तु कृष्ण सिर्फ़ रोते हैं
यमुना विधवा है, वृन्दावन जलता है
कृष्ण सिर्फ रोते हैं!
समीरण धीरे बहो। राधा नहीं आयेगी।

"ओ री प्रिया तेरे शरीर को छूकर
धन्य यह पवन-रज मेरे अंग से लगी
अंग यह कंचन हुआ, जनम यह धन्य हुआ
मरण मैं जीत गया, जनम यह धन्य हुआ
पवन-रेणु मेरे अंग से लगी!"

-कल की स्मृति मुझे आती है
पर आज? आज तो मरणयज्ञ चलता है
उपस्थ ही काष्ठ है, योनि ही ज्वाला है
कामना आहुति है, सामगान उठता है
"ॐ कामदेवाय विद्महे
पुष्पबाणाय धीमहि
तन्नोऽनङ्गः प्रचोदयात्।"६
मरणयज्ञ चलता है,
शकुन्तला, यूप काष्ठ है
दुष्यन्त यज्ञपशु है- मरणयज्ञ चलता है।

तिरिया रे तिरिया, तेरे रुदन से
रोते हैं पाखी, रोते हैं पत्ते
रोता है भादर, रोता है सागर
तिरिया रे तिरिया, क्यों तू कातर है?
क्या गीतों को बेच अभी नहीं लौटा तेरा बनजारा?
जननी री जननी, क्यों तू कातर है?
क्या तेरा भी लाल चुराकर ले गया मथुरा का राजा?

बिटिया री बिटिया, तू क्यों रोती है?
क्या कहा? मेले में भटक गयी।
पिता ही खो गया?
कहाँ है प्रीतम? कहाँ है लाल?
कहाँ है पिता? कहीं नहीं, कहीं नहीं।
मरणयज्ञ चलता है।

सर्ग ३ : तब तीनों मुँह बोल उठे!

रानी बिकाऊ है, राजा बिकाऊ है!
सच्चाई बिकाऊ है, प्यार बिकाऊ है!
हाँ, एकदम 'न्यूड' बिल्कुल नफ़ीस
ड्राइंग रूम सजा लो, सुरुचि कमा लो
राजा बिकाऊ है, रानी बिकाऊ है
लोगे मोल, लोगे मोल
लोगे मोल, लोगे मोल
'अजी मरघट पर जाओ चिल्लाओ!
डोम हैं हम? जो खरीदें इस कौड़ी के तीन
रानी और राजा को? हम हैं नागरिक।
काशी की बात न्यारी है। क़स्बे और
नगर की रुचि में भेद होता है।' -भीड़ ने जवाब दिया। पर कोई
चिल्लाता रहा- 'लोगे मोल?'
अचानक तन मन थर्रा गया, मानो
खोपड़ी पर ब्रज है कड़क उठा
दुबक गया आसमान, दुबक गयी भीड़
दिशाएँ शान्त हुई और एक तीनमुखी
यक्ष का चेहरा दीख पड़ा और
मेघमन्द्र स्वर में क्रमशः मुँह बोल उठे।
चेहरे पहचाने लगे, स्वर पहचाना लगा।
(रवीन्द्र) : "अरे रे, अभागे रे, मैंने कब कहा-
-मैंने कब कहा कि
मानुष मत बन- बंगाली बन?
मैंने कब कहा कि
मानुष मत बन- बिहारी बन?
'आप नारे शुधू घेरिया, घेरिया' मरते हो पल-पल, रे भाई भद्रलोक
तुम्हारे अहंकार से मेरी आत्मा में घाव है
ओह, मेरी पीड़ा का अन्त नहीं
ओह, मेरी पीड़ा का अन्त नहीं
'एकला चल' का यह अर्थ नहीं।"
(विवेकानन्द) : "अरे रे कायर, मैंने 'अभय' दिया
फिर भी तू भीरु रहा डरता रहा
अरे रे पामर, मैंने ब्रह्मास्त्र दिया
जिसे तूने ट्रांजिस्टर के वास्ते बेच दिया
प्रत्यंचाहीन धनुष लिये मूर्खवत्
धनुर्धर की कीर्ति ढोता रहा टट्टू-सा
इज्ज़त कमाता रहा लट्टू-सा
पर लक्ष्य बाण मारा नहीं
मौत को 'माँ' कह निर्भय पुकारा नहीं।
आज मेरी आत्मा में घाव हैं
तू मेरा क़फ़न बेच खाता रहा
मेरा 'अभय' व्यर्थ गया
मेरा ब्रह्मास्त्र खाली गया!"
(चैतन्य) : "ओह, तुझे शर्म नहीं आती है?
नदिया के कूल पर खेलते बनपाखी को
देखो और शर्म करो!
चोंच से चोंच, पंख से पंख, अंग से अंग!
-अह, देखो और शर्म करो!
रंभाती है धौरी, दौड़ता है बछड़ा उमंग से
देखो और शर्म करो!
प्रात और सन्ध्या में, तप्त दोपहर में
काली क्रुद्ध रात में, फूटते फूल-निर्द्वन्द्व
देखो और शर्म करो!
सब कुछ मरता है- कुछ भी टिकता नहीं।
सिर्फ़ वही बच जाता है
जिसे प्यार तुम करते हो
शेष काल लील जाता है
पचाता है, गोबर बनाता है!
पर जिसे तुम प्यार करते हो
वह छवि नहीं मरती है, वह क्षण नहीं मरता है
वह मुख नहीं मरता है,
वह परस नहीं मरता है।
बूँद में समुद्र है, क्षण में चिरन्तन है
प्रिया का ललाट ही प्रभु का ठिकाना है!
जिसे तुम प्यार करते हो
वही नहीं मरता है, मात्र वही नहीं मरता है
जिसे तुमने अमृत से सींचा है!
मरण-अग्नि जल रही- हा हा उठ रहा!
क़तार पर क़तार, पाँत पर पाँत
मन्त्र की डोर पर कर्षण हो रहा
मरण है खींच रहा, दुर्निवार पाश है
भस्म सब हो रहे, मरणयज्ञ चल रहा।
पर प्यार बच जाता है!
पवन प्यार को उड़ाता है,
आकाश क्षमा करता है
धरती व्यथा सहती है, सृष्टि चलती रहती है
इस तरह प्यार बच जाता है।
अतः शर्म करो, शर्म करो
बाँबी में पड़े पड़े जहर सिर्फ़ पालते हो
यह काम नहीं आयेगा, मरण जब आयेगा
तुम्हारे माथे मणि है, मणि छीन ले जायेगा।
अत: प्यार करो, मणि का दान करो
समर्पण ही प्यार है, मुक्ति है, अमृत है।"

उपसंहार : शाप-मोचन

आकाशवाणी पर बजता है एक संवाद :
"सन्ध्या सुनहली है, हवा में धीरज है
दु:ख आज शान्त है, आसमान नि:रज है
वधू, कुछ कथा कहो
वधू, कुछ बात करो
समय के मेघ उमड़े हैं, छन-छन बरसते हैं
पर,
असुर रोस पी जाता है, जीवन पछताता है
असुर के खप्पर से फिसल पड़ा
एक बूंद 'समय', मैं चुरा लाया हूँ
वधू, इस क्षण को वरण करो
वधू, इस क्षण को अमर करो
वधू, अभिसार करो
सोना पिघल गया पश्चिम का
नीली बाढ़ में दिशाएँ डूब गयीं
देखो, न क्षण कहीं रिक्तहस्त लौट जाय!
वधू, अभिसार करो!"
["मन्दिर बाहर कठिन कपाट
चलइत पंकिल शंकिल बाट
हे सखि काह, करब अभिसार- हरि रहु मानस सुरधुनि पार!७]

मैं द्वार तोड़ता हूँ- मैं कपाट खोलता हूँ
मानस की सुरधुनी बहती है
ओ राजा की बिटिया,
हर्ज नहीं यदि डूब जाओगी
भोर हुए, नीलोत्पल बन जाओगी।
यह देह वल्लरी मृणाल बन जायेगी
यह छवि नीलोत्पल बन जायेगी।
ओ राजा की बिटिया, मन के दर्पण में
मानस की सुरधुनी बहती है
यदि पार कर जाओगी
तो पहचान पाओगी उस पार
प्रीतम खड़ा है, योगी का वेश धर!
द्वापर लौट आयेगा।
वधू, अभिसार करो।"
आकाशवाणी गोहाटी है। बज रहा
संवाद मणिपुरी भाषा में। चित्रा
सुनती है, अर्जुन कहता है।
अचानक सुई घूम गयी य द्वापर-सुर भंग हुआ।
"पूरब, पछाँह-देस, उत्तर से दक्खिन लौ"
नये स्वर घूमने लगे, आसमान मथने लगे
रतन निकलने लगे, मोह छिन्न-भिन्न हुआ।

संदर्भ संकेत
१. पुरा स दर्भाङ्कुरमात्रवृत्ति...." (रघुवंशम, १३वा सर्ग)
२. 'तंजुर' और 'कंजुर'- तिब्बती बौद्ध शास्‍त्र के दो अंग।
३. ॐ मणिपद्मे हुं- नेफा (उर्वशीयम्) और लद्दाख तथा हिमालय के अन्‍य बौद्ध अंचलों का अत्यन्त लोकप्रिय मन्त्र।
४. "विश्व विजय नौजवान"- असम का लोकप्रिय राष्ट्रीय गीत।" चल-चल रे मोशलमान" नज़रुल का एक गान जिसका दुरुपयोग नोआखाली और पूर्वी बंगाल के दंगों में खूब हुआ। काज़ी नज़रुल इस्लाम की दृष्टि साम्प्रदायिकता से बिलकुल मुक्त है। पर उनके कुछ गीतों का दुरुपयोग हुआ है। "चीन है हमारा...." इकबाल के एक सम्प्रदायवादी गान की पैरोडी है।
५. "स्मरगरलखण्डनम्, मम शिरसि मण्डनम् देहि पद पल्लवमुदारम्"-गीत गोविन्द की प्रसिद्ध पंक्ति।
६. ॐ कामदेवाय विद्महे, पुष्पबाणाय धीमहि तनोऽनङ्गः प्रचोदयात्" तान्त्रिकों को कामगायत्री।
७. "मन्दिर बाहर कठिन कपाट" इत्यादि- यह ब्रज बोली के बंगाली वैष्णव कवि गोविन्ददास का पद है। कुछ लोगों को संशय है कि ये मैथिली है।

प्यार नहीं मरता है कभी भी
अत: गीत का वरण करो
सूरज नहीं मरता है कभी भी
अत: माटी का वरण करो
ईश्वर नहीं मरता है कभी भी
अत: मानुष का वरण करो।
क्योंकि तुम हो गीत
तुम हो माटी
तुम हो मानुष
यही है तुम्हारी मुक्ति, यही है तुम्हारा चरम ठिकाना।