भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

एक नया पांथिक दम्भ / संजय तिवारी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

तुम्हें आज एक रहस्य बताती हूँ
श्रीमद्भगवद्गीता
कहने की कथा सुनाती हूँ
इस ज्ञान कथा को
कृष्ण ने कहा
अर्जुन ने सुना
स्थान था युद्ध का मैदान
लगभग एक युग का अवसान
लेकिन इसी ज्ञान कथा को
संजय ने भी देखा और सुना
और जैसा देखा सुना
वैसे ही धृतराष्ट्र को भी सुनाया
सब सच सच बतलाया
फिर भी जानते हो क्या हुआ?
जिसे कृष्ण सुना रहे थे
उस अर्जुन की समस्त शंकाये मिट गयी
जिसे संजय ने सुनाया
उसकी शंकाये क्रोध बन कर
उसी से लिपट गयी
वह परमज्ञानी वाचक था
चेतनशील याचक था
यहाँ दूर दृष्टि वाला गायक था
लेकिन अँधा और
चेतना शून्य
पुत्र मोह में जकड़ा
सत्ता के लिए अड़ा
अन्याय के साथ खड़ा
उस युग का अनायक था
सोचो
ज्ञान तो वही था
लेकिन
पार्थ ने जो पाया
धृतराष्ट्र को जो मिला
वही नहीं था
वहां वाचक और याचक
दोनों के मन और मस्तिष्क खुले थे
यहाँ संजय की दृष्टि तो बहु दूगामी
और भविष्य में भी झाँक रही थी
अंधे धृतराष्ट्र की चेतना
केवल अपने पुत्रो की विजय बाँच रही थी
वहा संजय को युद्ध से पहले ही
दिख चुकी थी
पांडव के विजय की झलक
क्योकि वही योगेश्वर दिख रहे थे
तुम्हारे ज्ञान की कथा अधूरी रह गयी
क्योकि
तुम्हारे ग्यानी
सत्ता के हाथो बिक रहे थे।
 गीता के बाद भारती की
हर सांस सजी थी
हुआ था नए युग का आरम्भ
तुम्हारे ज्ञान ने कर दिया
खंडित राष्ट्र को?
प्रसारित कर दिया
एक नया पांथिक दम्भ।