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एक पगडण्डी सुख / लीना मल्होत्रा

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मैं आज एक अनजाने सुख से भरी हूँ
एक नए शहर में मै पहली बार अकेली आ गई हूँ
मै एक ऐसा दिन जीने जा रही हूँ
जिसमें सिर्फ़ मेरी यात्रा तय है
ये नहीं की कैसी होगी मेरी यात्रा
और कौन होगा मेरे साथ ?

मै समझ पाई हूँ जीवन को
एक नई दृष्टि से
कि यदि भरे पूरे शहर में तुम्हारा घर न हो
न ही होटल का कमरा
और कोई दोस्त भी न हो आसपास
तो असुरक्षा को
शहर की बिल्लियों से दोस्ती करके
कैसे दूर भगाया जा सकता है
कैसे शहर की गलियाँ और साईकिल रिक्शा वाला
आत्मीय हो जाता है
और भरोसे के कितने ही फूल अचानक खिल उठते हैं
और उनकी सुगंध तुम्हे जीत का एक आश्वासन दे सकती है .

एक उड़ती हुई तितली तुम्हारे लिए एक रास्ते का निर्माण कर सकती है
जिसकी लय पर बेख़ौफ़ बिना पीछे देखे तुम चलते रह सकते हो

बाग़ में उड़ती हुई चिड़ियाँ
दरख़्तों पर लटके पत्तो का रिश्ता कितना नायाब होता है
और कैसे वे आसमान और मिटटी को एक कटोरी चीनी की तरह उधार लेते देते हैं..

मैंने जाना
प्रकृति की सर्वश्रेष्ठ उपहार आज भी हमें बिना मूल्य चुकाए ही मिलते हैं
और हमारे घर की अलमारियों में बंद सोने-चाँदी और हरे नोट
सिएफ़फ डर चिंता और उपभोक्ता ही पैदा कर सकते हैं

मैने अजनबी चेहरों में तलाशा थोडा अपनापन
और जाना कि
कि हमारे भौतिकता से लबरेज़ दिलों में थोड़ी ऊष्मा बाकी है
उनके पसीने से भरे चेहरे और मैले कपड़े उनकी ग़रीबी की नहीं
बल्कि उनके बीच एक अनोखे समाजवाद की घोषणा करते हैं
और हमें उनके जैसा होने के लिए सिर्फ़ धूल और धूप ही चाहिए