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एक बहरी सभ्यता आई / हरीश भादानी

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एक बहरी सभ्यता आई
बिछा बारूद
मन के चौखट पर,
चढ़ गई ऊँचे
बहुत ऊँचे कंगूरों पर;
सीलन भरी बारूद-
जिससे दुर्गन्धा रही सांसें
अँधेरी बांबियों-सी
यह बारूद-
हड्डियों को पकड़
पसरी ठर रही है
उम्र की दीवार पर;
बिना पेंदी के आकाश में
अटके हुए जो भ्रूण के सूरज !
मात्र दर्शक मत रहो,
भरम के बादलों की
ओट मत लो,
तेंवर बदल धूपो
-कि आदम जात पुतले
अगियाये हुए भागें-
हर दिशा हर छोर,
इस तरह लपटें
कि गोरा-काला और पीला
भेदने वाले ये शीशे
चिटचिटा कर टूट जायें
और जो हैं ठूंठ
धू-धू कर जलें,
रह जाय केवल राख की ढेरी,
यह-ढेरी-
फिर भीगे पसीने से
और पूरी एक जैसी ही
फसल के बीज फूटें !