दृष्टि की टहनियों में
उगते-लहरते
नए-नए पत्तों-सा
बदलता रहता हूँ
समय
हवाओं की तरह
बहता है
सक्रियता
रात और दिन की
दूरी में भी
दरकी नहीं कभी
आज तक
अब एक बार
हज़ार बार
मौत के सिर पर
कील ठोकने की
हुज्जत में लगा हुआ
अपनी हाय-हाय से दूर
एकदम सतर्क हूँ
पता नहीं कितना ?