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एक बार फिर/ सजीव सारथी
Kavita Kosh से
वापिस मुडा हूँ एक बार फिर,
अपने कूचे की तरफ़,
वो गली जो मेरे घर तक जाती थी,
फिर से मिल गयी है,
वो राह जो मेरे दर तक पहुँचती थी,
साफ़ दिखाई पड़ रही है,
एक बार फिर,
छूकर महसूस करने दो मुझे,
मिट्टी से बनी इन दीवारों को,
बरसते आबशारों को,
चंचल बयारों को,
खोल दो इन दरीचों को,
ताकि एक बार फिर,
गुलाबी धूप,
छू सके मुझे आकर,
इन सब्ज झरोखों से.....