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एक बार फिर / इमरोज़ / हरकीरत हकीर
Kavita Kosh से
सवेरे सवेरे
तुम्हारे साथ सवेर कर रहा था
कि मोबाइल से इशारा हुआ
कि पैसे खत्म हो गए हैं
कैसे इत्तिफ़ाक हैं कि संस्कार भी
कभी मोबाईल से पैसे खत्म हो जाते हैं
तो कभी रिश्तों में से रिश्ते
इक दो ईदों से
ईद नहीं होगी
जितने वक़्त मनचाही ज़िन्दगी
हमारा जन्म सिद्ध अधिकार नहीं बनता
ईदें मनचाही नहीं होंगी
मनचाहे रिश्तों के रोज़े
क्या पता कब खत्म हों या न हों
ख्यालों के चाँद
और नज्मों की ईदें ही अब तो
अपनी मनचाही ईदें हैं …
चल आ
बच्चों की तरह मासूम बन
इक बार फिर
फूलों में दौड़ - दौड़ कर खिल - खिल कर
और खुशबूओं संग उड़ -उड़ कर हँसे
सभी अनचाहे रिश्तों से अनचाहे संस्कारों से
और अनचाहे रोजों से बेफिक्र होकर
तितलियों की तरह बेफिक्रों की तरह...