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एक बिन्दु को वृत्त मानकर / ओमप्रकाश चतुर्वेदी 'पराग'

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उस पर साधा तीर किसलिये, जो न कभी था लक्ष्य तुम्हारा !

जो न कभी वापिस लौटेगा, उस राही को व्यर्थ पुकारा !!


साँसों की आँधी से दुख का बादल कहीं छँटा करता है

आँसू की वर्षा से मन का मस्र्थल नहीं घटा करता है

रोना धोना छोड़ उठो, जीने की पूरी रस्म निभाओ

पीछे हट जाने से पथ का पत्थर कभी हटा करता है

औरों के आश्रित हो जीवन, शर्तों पर जीने जैसा है

टूटी नाव, नशे में माँझी, दे न सकेंगे कभी किनारा !!


जन्म मरण ज चक्र अदेखा, और अबूझा है परिर्वतन

शायद फिर न मिले यह जीवन, शायद फिर न मिले यह नर-तन

तुम अनुभव तो करो, सृष्टि में बिखरे सत्यं, शिवं, सुंदरम्

देखो इन्द्रधनुष मालाएँ, सुनो तनिक भ्रमरों का गुंजन

एक बिन्दु को वृत्त मानकर, ख़ुद को सीमाबद्ध कर लिया

जीवन-ज्यामिति की समग्र रचना को क्यों तुमने न निहारा !!