एक भावी हत्यारे का बयान / कुमार विक्रम
मुझे अब पूरा-पूरा हो चला है विश्वास
कि जब कभी
भी मेरे हाथों किसी की होगी हत्या
मुझे ही ज़िम्मेदारी मिल जाएगी
उस हत्या की तफ्तीश करने की
मैं दल-बल उस जगह पहुचूँगा यकायक
और मुझे मालूम है सारे हतप्रभ होंगे
हत्यारे की सफाई से,
न कोई हत्या के औज़ार,
न कोई उँगलियों के निशान
न ही किसी इरादे की भनक
वहाँ ऐसा कुछ भी नहीं पाया जाएगा और सब
मुझसे ही पूछते होंगे
क्या दिशा हो तफ्तीश की और
मैं पूरी गंभीरता से
एक लम्बी फेहरिस्त बनवाता जाऊँगा चीज़ों की
फटे हुए तकिये
और टूटे हुए कप-प्लेट और बिखरी हुयी किताबें
और बेतरतीब रखी हुई कुर्सियाँ
और ज़मीन पर गिरी हुई
दीवार घडी
और अपनी जगह से हिला हुआ पलंग
जिस जगह और जिस रूप में
लाश पाई गयी होगी उसके
चारों ओर चौक से निशान लगाते हुए
मुझे याद आएगा
वो लम्हा, जब दोनों हाथों से
मैंने उसका गला
अंतिम बार दबाया था,
और था मुझे ऐसा लगा जैसे एक फीकी
मुस्कान के साथ उसने दम तोड़ दिया था,
लेकिन इन सबका भान
किसी और को नहीं हो पायेगा
और बार-बार मुझे अपनी हाथ की सफाई पर
गर्व आता रहेगा
हालाँकि सबकुछ सबको बताकर
एकाएक कोलाहल पैदा कर
सबका ध्यान मेरी ऒर कर देने की इच्छा भी
बराबर मुझे उकसाती रहेगी
हालाँकि मुझे पता है कि मेरे सनकीपन से वाकिफ़
मेरे सह-जासूस मेरी खुलासों पर फीकी मुस्कान
भी नहीं फेकेंगे और
फिर उन्हें तो सिखाया जा चुका होगा
की हत्यारा उनके बीच से नहीं,
बल्कि किसी एक
अंधकार से निकल
दूसरे अंधकार में छिप जाता है.
और फिर मैं आश्वस्त हो जाऊँगा कि सभ्यताओं
के भूगर्भ में समाने पर
पूरी गंभीरता से चुपचाप उसकी खोजबीन
करने की एक लम्बी
परंपरा मुझे इस कश-म-कश से
ज़रूर उबार लेगी
नया ज्ञानोदय, 2008