भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

एक माँ की डायरी / अनुप्रिया

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

तुम हँसती हो
हँस उठता है मेरा सर्वांग
तुम्हारी उदासी
बढ़ा देती है मेरी बेचैनियाँ
तुम उड़ती हो
उड़ जाता है मेरा मन
आकाश की खुली बाँहों में बेफ़िक्री से
तुम टूटती हो
टूट जाता है मेरा अस्तित्व
भड़भड़ाकर
तुम प्रेम करती हो
भर जाती हूँ मैं
गमकते फूलों की क्यारियों से
तुम बनाती हो
अपनी पहचान
लगता है
मैं फिर से जानी जा रही हूँ
तुम लिखती हो कविताएँ
लगता है
सुलग उठे हैं
मेरे शब्स
तुम्हारी क़लम की आँच मैं।