भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
एक माड़ो सुपनो / मदन गोपाल लढ़ा
Kavita Kosh से
वा लपर-लपर कर’र बूक सूं
तातो लोही पीवै
अंधार-घुप्प में बिजळी दांई
चमकै उणरी आंख्यां
मून मांय सरणाट बाजै
उणरी सांस
म्हैं एकलो
डरूं धूजतो
कदी उणनैं तकावूं
अर कदी
हाथ में भेळी कर्योड़ी
कवितावां नैं।