भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

एक मोमबत्ती जला लें / नीरजा हेमेन्द्र

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सिहरन भरी
सर्द शाम
उतरती जा रही है
घुमावदार, सर्पिली, पथरीली पगडडियों पर
कतारब़द्ध वृक्षों के पत्ते
काँप रहे हैं
जैसे ऋतुएँ सर्द हो कर
उतर आयी हैं वृक्षों पर, पत्तों पर, सृष्टि पर...
निस्तब्ध......निर्जन में
भव्यता के साथ खड़े गिरिजाघरों की
अनन्त, असीमित ऊँचाईयाँ
दिसम्बर के सर्द पलों को
समेट लेना चाह रही हैं
ऊँचे गुम्बदों......परकोटों......प्रार्थना कक्षों में......सर्वत्र
गिरिजाघर की स्मृतियों में
मैं और तुम भी तो हैं
जब हम आते थे
सर्दियों की गर्म ऋतुओं में
अपनी भावनाओं की पवित्र
मोमबत्तियाँ जलाने! प्रभु के चरणों में
आओं! आज पुनः आओ तुम
उतरती साँझ की इस सर्द ऋतु में
एक मोमबत्ती मिल कर जला लें, हम
प्रभु के चरणों में.....
इन पगडडियों पर
आगे नही, पीछे लौट चलूँ मैं
पुनः तुम्हारे हाथों को थामें
वहाँ/जहाँ सर्द हवाओं में उड़ रहे हैं
सूखे पत्तों के साथ
विगत् दिनों के....
टूटे सपनों के.......इच्छाओं के टुकड़े....