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एक वजूद / सूर्यदेव सिबोरत
Kavita Kosh से
मिले अचानक
दो अनजाने
चलते रहे हैं बरसों-
एक बूंद आंसू
एक कण हंसी
कभी आज
कभी कल
कभी परसों ।
बनकर
मेरे वजूद का वजूद
दिया है तुमने
जीने का मकसद
मैं तो कुछ भी नहीं ।
सूनेपन में
तुम्हारे कदमों की आहट
मेरे दिल की
धड़कनें हैं ।
कल
जो भीड़ थी
आज
जो भीड़ है
और
कल
जो भीड़ होगी
मेरी पलकें
उंगलियाँ बनकर
हर आदमी को
खींच खींचकर
हटा हटा कर
तम्हें
खोजती रहेंगी
युग युगान्तर तक ।