एक विकलांग नारी का अन्तर्द्वन्द्व / उर्मिल सत्यभूषण
तुमने ओढ़ा था मुझे
माथे पर चन्दन की तरह
मैं अभी भी खुशबू में पगी
लिपटी हूँ वहाँ। मंदिर
में पुजी दीपशिखा सी
जाना तुमने। मेरे लुंज-पंुज
जीवन को गति दी
है, अपनी बलिष्ठ भुजाओं
का सहारा देकर
मैं किस मुँह से कहूँ
आभारी हूँ बहुत। शब्द
असमर्थ हैं आभार प्रकट
करने को
जब यज्ञ में आहुति का
समय आया था। जब भांवर
पड़ने लगी थी मेरी। मैंने
सोचा था चिता धधकी है
मेरी बड़े छल से बुलाये
गये पहुने, लौट जायेंगे
मुझे ठुकरा के चले जायेंगे
मेरा निश्चय था कि जल
जाऊँगी, मर जाऊँगी,
कुंठाओं भरे जीवन को
खत्म कर दूँगी
चरणों पे-
तुम्हारे, सिर को धरे।
मैं उठी कि गिरी
मेरा काँपा हिया। कांटें
उग आये तन-मन पे
मैंने महसूस किया
फुफकारा है प्रवंचित नाग
विष उगलेगा अभी
डस लेगा अभी सबको, सबको,
विद्युत सी ही मैं लपक उठी
पकड़ा जो तुम्हारे कदमों को
झटका जो दिया, फैंका तुमने
तब घूंघट उलट पड़ा मेरा
आँखें टकराई आँखों से
तुमने क्या पाया दृष्टि में?
कि तुम कीलित से खड़े
रहे निश्चल निर्वाक
निरखने में
शायद फिर
से तुम ठगे गये, शायद
फिर से तुम छले गये अपने
ही उर की करुणा से
भूले मृग शावक सा चेहरा
कितना सुन्दर हो आया था
लटकी टाँगों का बोझ तुम्हें
शायद हल्का था जान पड़ा
दाता! मेरे, सब भूल-भाल
जब तुमने मुझे उठाया था...
मृत्यु का निश्चय फिसल गया...
फूलों की मानिन्द मृदुल जान
तुम मुझे सजाते आये हो
अपने श्रम सीकर से मेरा
उपवन लहराते आये हो
हर सुविधा है उपलब्ध मुझे
यह कुटिया मेरी हरी-भरी
लगती है जैसे स्वर्ग मुझे।
पर क्यों कांटे से कसकता
मन कभी-कभी
रिसते नासूर सा टीसता
मन कभी-कभी
उद्बुद्ध चेतना चीख-चीख
उठती है क्यों?
मैं मर जाऊँ, मैं खप जाऊँ
मैं मुक्त करूँ साथी तुमको
तुम क्यों कारा में बंद हुये?
मुझको सम्पन्न बनाकर तुम
कितने विपन्न हो आये हो
यह दीन-हीन, श्रीहीन मुख
कर जाता मुझको चूर-चूर
रख देता दिल को चीर-चीर
माथे पर चमें स्वेद कण
हैं आग लगाते हृदय में
कितना थोड़ा सा अन्तराल
पर कितने प्रौढ़ लगा करते
जर्जर से तुम, पतझड़ लगते
मुर्झाये से ये शिशु पल्लव
कर्त्तव्य भार से दबे हुये
यह शमित, नमित बचपन
उनका
यह दबी घुटी सी
किलकारी
करती उर पर है
वज्राघात
दूधिया उज्ज्वल
तन-मन उनका
कितने चुप से
कितने विनीत
जी होता कर लूँ प्राणाघात
छुटकारा दूँ तुमको, उनको
यह अपंग तन, विकलांग मन
सुलगा है गीली लकड़ी सा
जिसका कड़वा विष भरा
धुँआ मुझको विषाक्त कर जाता है।
क्यों दिया मुझे जीवन दाता!
मैं शिला अहिल्या सी बनकर
सोई रहती, खोई रहती।
क्यों राम बने? क्यों मुक्त किया?
मैं पुष्पित हूँ, अभिसिंचित हूँ,
अभिषिक्त तुम्हारे द्वारा हूँ
मैं शस्य श्यामला बनी धरा
जिसके अन्तर में ज्वाला है
जानेगा कौन यह बिथा कथा
मैं पंख कटे पक्षी जैसी
फड़फड़ करती हूँ पिंजरे में
मेरे तन-मन और नस-नस में
है आग अनोखी लगी हुई
मैं कैसे काटूँ यह बंधन
मैं क्यों कर बन जाऊँ कृतघ्न
निर्दोष तुम्हारी दया दृष्टि ने ही
मुझको मथ डाला है
निष्पाप रहा करुणा सागर
लहरों सा मुझे उछाला है
बेदाग तुम्हारी कीर्ति को
मैं दाग़ लगाऊँ कैसे तो
रे मर जाऊँ कैसे तो
आँसू छलकाऊँ कैसे तो
फिर भी मुस्काते जाना है
बस आँसू पीते जाना है
बेबस हो जीते जाना है।