भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

एक विदा घड़ी / मोहन अम्बर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मेरी गीत बँसुरिया बतला आज तुझे मैं कैसा स्वर दूँ?
आँसू से बढ़ फूल न कोई जो तेरे चरणों में धर दूँ
यह कैसा बड़भागीपन जो विदा दे रही भीगी पलकें,
इन पलकों में मन धोऊँ, तो कहीं प्रतीक्षित भीगी पलकें

मेरे प्यार-पुत्र को युग ने ऐसी निर्ममता से मारा,
इधर किसी की अलक सँवारूं उधर किसी की बिखरी अलकें?
इस हालत में गूंगापन ही मेरा साथ निभा सकता है,
प्रश्न विराट गगन जैसा है, मैं अदना कैसे उत्तर दूँ,
 
आँसू से बढ़ फूल न कोई जो तेरे चरणों में धर दूँ।
फागुन से मैं बात करूं तो, फागुन सावन बन जाता है,
उस सावन के साथ बहूँ तो संचित धीरज धन जाता है,
मेरी गति को परवशतायें बाँहों में ऐसी कस बैठी,

दुख के कंकर बीनूं इतने सुख चलनी में छन जाता है,
फिर भी मेरे इन कानों में माँ का दूध कहा करता है,
मनु हूँ मनु का उन्नत माथा कैसे मैं ख़ुद नीचा कर दूँ,
आँसू से बढ़ फूल न कोई जो तेरे चरणों में धर दूँ।

गिनो अगर तो थक जाओगी मेरे साथ किया क्या ग़म ने
इधर डराती रही अमावस उधर दुखाया है पूनम ने,
यह जीना भी क्या जीना, जो छाती पर पत्थर रख जीना,
लेकिन तुझ को धन्यवाद जो लाज रखी तेरी सरगम ने,

इस सरगम ने मेरी भटकन को यह सच का पाठ पढ़ाया,
क्यों मरूथल को और धूप दूं क्यों नदियों में बाढ़ें भर दूँ?
आँसू से बढ़ फूल न कोई जो तेरे चरणों में धर दूँ।