भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
एक शाम / बर्णाली भराली
Kavita Kosh से
उस दिन एक शाम
नाम ने पुकारा हमें
न हीं हरी है न हीं पीली
उस बीच में से एक रंग होकर
लटक रही थी, दिघली तालाब के
काई भरे पेड़ में
तन्हाई के घेरे में डूबी शाम को
पहचानने के लिए, मेरे पास नहीं थी
अलग एक शाम
जो पाप के आँसुओं में
गुंजन से भीगी है, रात की एक लम्बी सीटी
याद है न तुम्हें
शाम, तुम्हारे साथ आना नहीं चाहती थी
जब तुम ह्रदय को साथ लेकर
शहर की गली-गली घूम रहे थे
तब शाम को छोड़कर
नहीं आया था क्या
होटल की जूठी प्लेट और नैपकिन के साथ
एक जली हुई सिगरेट की तरह
क्यों छोड़ दिया था उसे
बेनाम यातना के बीच
सिर्फ़ एक बेआवाज शाम
आएगी लौट कर हमारे पीछे-पीछे
और हम विश्राम लेंगे उसकी छाँव तले...