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एक शाम थी वह / कुमार मुकुल
Kavita Kosh से
डूबते सूरज का
अब कोई दबाव नहीं था
एक तारा था ऊपर
आकाश की अंगुली सा
खेत की मेड थी और था एक कुआं
टीले थे पास कई
और एक पीपल
खडखडाता तिलंगों सा चैत में
कुछ दूर भेंडें थीं ...में ... मां ... करतीं
हरर हो ... करते चरवाहे
मैंने सोचा यही जीवन है
सफेद जुते मैदानों में
अंधेरा उतर रहा था धीरे धीरे ...
जैसे लोरी में उतरती है नींद
फिर रह गया अंधेरा ही
रह गयी हवा
बतलाती कि वह भी है
अब निकलेंगे पतंगे अंधेरे कोटरों से
बिलों से सांप निकलेंगे
दरारों से ऊपर आएंगे बिच्छू
अब अपने बच्चों को खोजती टिटहरी
दौडेगी इधर उधर
चिचियाती खेतों में।
1996