एक शाम प्राक्तन बावड़ी पर / नीलोत्पल
अभी एक बिल्ली
छु़ई-मु़ई के पौधे को छू़कर निकली
सभी पत्तियां एक-एक कर
आपस में चिपक गई
सभी पत्तियां खामोश
बिल्ली भी जा चुकी
चींटियां नहीं, गिरगिट नहीं
ये दृश्य जैसे किसी की अनुपस्थिति का हो
अनुपस्थितियां शहर में भी होती हैं
प्राक्तन बावडियों में भी
रंगों में होती हैं और कवि की भी
हम सब अनुपस्थित हैं
जैसे अनुपस्थिति है एक धारदार कवि की
जो लिखते हुए सब कह गया
सपनां, कल्पनाओं, अपराधों और जीवन संघर्ष से
मुक्ति संभव नहीं
घाट की सिमटी और सूखी पड़ी
सीढ़ियां चुप हैं
चुप हैं करौंदी की डालियां
औदुम्बर के वृक्ष, घास और लत्तर
न ब्रम्हराक्षस है न उसका शिष्य
सब ओर चिपकी पत्तियां
हवाएं भी बहती हैं आसपास
कु़छ नहीं खु़लता
एक बू़ढ़ा कवि जो टकटकी निग़ाह से
देखता है पानी में डू़बी हु़ई सीढ़ियां
लेकिन कोई हलचल नहीं
तभी एक पंडित पानी की सतह पर
लहराता है हाथ मंत्र बु़दबु़दाते हु़ए
और उंगलियों में बचाते अपना अपराध
छोड़ता है जल अभिष्ट मू़र्ति पर
औचक खु़ल जाती है पत्तियां
खु़ल जाते है देवताओं के द्वार
लोग प्रवश करते हैं
जन सुनवाई के दौरान
कोई चर्चा नहीं करता अपराध की
और उन छिपे हाथों की
सभी मस्त हैं, हंसते हैं
अपराध, अपराध की जगह बचा रह जाता है
समुद्र, नदियां, तालाब और बावडियां
चु़प हैं
उन्हें छु़कर ढेरों बिल्लियां निकल गईं