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एक शिक्षित बेरोज़गार का गीत/वीरेन्द्र खरे 'अकेला'
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हर पल तेरा ही दर्द सताता है नौकरी
तेरे बग़ैर कुछ भी न भाता है नौकरी
बी. ए. किया है, एम. ए. किया, टाईपिंग की पास
अब क्या करूं समझ में न आता है नौकरी
अपनी नज़र में तो वही तक़दीर वाला है
इस दौर में भी यार जो पाता है नौकरी
रिश्वत नहीं है, कोई सिफ़ारिश भी है नहीं
देखूँ तो तुझको कौन दिलाता है नौकरी
लालच तुम्हारा देके वो अफ़सर पड़ोस का
नौकर सा मुझको रोज़ नचाता है नौकरी
तू साथ दे तो मुझको मिले कोई दिलरूबा
मौसम सुहाना बीतता जाता है नौकरी
दो-एक साल ही हैं फ़क़त ओवर एज को
रह रह के ये ख़्याल रूलाता है नौकरी