एक सन्नाटा बुनता हूँ / अज्ञेय
पहले मैं सन्नाटा बुनता हूँ।
उसी के लिए स्वर-तार चुनता हूँ।
ताना : ताना मज़बूत चाहिए : कहाँ से मिलेगा?
पर कोई है जो उसे बदल देगा,
जो उसे रसों में बोर कर रंजित करेगा, तभी तो वह खिलेगा।
मैं एक गाढ़े का तार उठाता हूँ :
मैं तो मरण से बँधा हूँ; पर किसी के-और इसी तार के सहारे
काल से पार पाता हूँ।
फिर बाना : पर रंग क्या मेरी पसन्द के हैं?
अभिप्राय भी क्या मेरे छन्द के हैं?
पाता हूँ कि मेरा मन ही तो गिर्री है, डोरा है;
इधर से उधर, उधर से इधर; हाथ मेरा काम करता है
नक्शा किसी और का उभरता है।
यों बुन जाता है जाल सन्नाटे का
और मुझ में कुछ है कि उस से घिर जाता हूँ।
सच मानिए, मैं नहीं है वह
क्यों कि मैं जब पहचानता हूँ तब
अपने को उस जाल के बाहर पाता हूँ।
फिर कुछ बँधता है जो मैं न हूँ पर मेरा है,
वही कल्पक है।
जिस का कहा भीतर कहीं सुनता हूँ :
‘तो तू क्या कवि है? क्यों और शब्द जोड़ना चाहता है?
कविता तो यह रखी है।’
हाँ तो। वही मेरी सखी है, मेरी सगी है।
जिस के लिए फिर
दूसरा सन्नाटा बुनता हूँ।