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एक साध: अधूरी / महेन्द्र भटनागर
Kavita Kosh से
जी करता है
आज का दिन
ज़िन्दगी की कश-म-कश से
हटकर
बंद कमरे में
सोए-सोए गुज़ार दूँ !
न जाने
कितने बरसों से
निश्चिन्त बेख़बर हो
आदिम-राग का, अनुराग का
अहसास भर
सोया नहीं !
जी करता है
आज का दिन
निश्चेष्ट शिथिल चुप रह
चित्रामाला में अतीत की
खोए-खोए गुज़ार दूँ !
न जाने
कितने बरसों से
उजड़े गाँवों की राहों में
छूटे नगरों की बाँहों में
खोया नहीं !
जी करता है
आज का दिन
सारे वादे, काम, प्रतिज्ञाएँ
भूल कर
गंगा की लहरों-सी
तुम्हारी याद में
रोए-रोए गुज़ार दूँ !
न जाने
कितने बरसों से
तुम्हारी तसवीर से
रू-ब-रू हो
रोया नहीं !